Book Title: Tirthankar Mahavira Smruti Granth
Author(s): Ravindra Malav
Publisher: Jivaji Vishwavidyalaya Gwalior

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Page 370
________________ छोटे भाई और शिष्य भट्टारक यश:कीर्ति को है। मानसिंह के राज्यकाल तक तोमरों का ग्वालियर उन्हीं की प्रेरणा से उत्तरी भारत के समृद्ध जैन व्यापारी जैन धर्मानुयायियों के लिए "देवपत्तन" बना रहा । ग्वालियर की ओर आकर्षित हए और उन्होंने गढ़ और सन् 1523 ई. में मानसिंह का राजकुमार विक्रमादित्य नगर, दोनों को जैनतीर्थ का स्वरूप दे दिया । भट्टारक (सन् 1516--1523 ई.) इब्राहीम लोदी द्वारा परायशःकीति की प्रेरणा से ही पण्डित र इध ने अनेक जैन जित हुआ और उसे गोपाचलगढ़ छोड़ देना पड़ा । उसके ग्रन्थ लिखे । तथापि भट्टारक यशःकीर्ति का बहुत । उपरान्त "गोपाद्री देवपत्तने" में क्या होता रहा, यह महत्वपूर्ण कार्य प्राचीन जैन साहित्य का पुनरुद्धार था। हमारा यहाँ वर्ण्य विषय नहीं है । हम एक बात कह सकते आज स्वयंभू और पुष्पदन्त जैसे महाकवियों की रचना हैं, उसके उपरान्त जैन सम्प्रदाय के अनुयायी भी यह उपलब्ध न होती, यदि ग्वालियर के जैन मठ में भटारक भूल गए कि देश के इस भाग में उनके धर्म के विकास, यश:कीति उनकी प्रतिलिपियाँ कराकर न रखते । जिस प्रचार और प्रसार के लिए क्या-क्या किया गया था, प्रकार ईसवी ग्यारहवीं शताब्दी में गुजरात में हेमचन्द्रा- कैसी महान् विभूतियों ने कितने उच्च प्रतिमान स्थापित चार्य ने जैन धर्म के विकास के लिए बहमखी प्रयास किये थे ? भट्टारकगण गुणकीर्ति और यशःकीर्ति के किया था, वैसा ही प्रयास महामुनि यशःकीति ने । गौरवशाली कृत्यों का आज किसे स्मरण है ? रइधू ग्वालियर में किया था। मात्र जैन-कथा लेखक के रूप में प्रख्यात है, उसने - नीतिमिद (मन 1459-1480 परत "तीर्थेशोवृषभेश्वरो गणनुतो गौरीश्वरो शंकरो" लिखग्वालियर पर कल्याण मल्ल (सन् 1480-1486 ई.) _कर ऋषभदेव और शंकर की एकरूपता प्रतिपादित कर का राज्य हुआ। उस समय तक भट्टारक यशःकीर्ति की धार्मिक सहिष्णुता का भी मार्ग प्रशस्त किया था, यह कितनों को ज्ञात है? कुशराज जैन तथा श्री तोडर मृत्यु हो चुकी थी । उसी समय दक्षिण के कुन्दकुन्दान्वय क्षेमशाह जैसे प्रधान मंत्रियों ने, साहु खेल्हा, खेड, सरस्वतीगच्छ का पट्ट भी ग्वालियर में स्थापित हो गया था। उस पट्ट पर भटारक शुभचन्द्र देव कमलसिंह आदि ने जैन धर्म और ग्वालियर की समृद्धि आसीन थे। के लिए क्या-क्या किया था ये सब तथ्य पूर्णतः मानसिंह तोमर (सन् 1486-1516 ई.) के भुलाये जा चुके हैं। कुछ पत्थर बोलना चाहते हैं, इनकी यशोगाथा वे शताब्दियों से अपने हृदय-पटलों राज्यकाल में भी ग्वालियर में जैन धर्म की पूर्ण प्रतिष्ठा पर अंकित किए पड़े हैं, परन्तु उन्हें कोई सुनना नहीं रही। उसका प्रधान मत्री खेमशाह जैन था। उसने चाहता। वास्तव में सन् 1523 ई. में ग्वालियर का भी संघाधिपति या सिंघई या विरुद लिया था। उनके अन्तिम स्वतंत्र राजा विक्रमादित्य ही पराजित नहीं समय में काष्ठासंघ के पट्ट पर भट्टारक विजयसेन हुआ था, उसके प्रदेश की उसके पूर्व की अनेक पीढ़ियों आसीन थे। कुछ नवीन जैन मन्दिर भी बने थे। द्वारा किए गए सांस्कृतिक जागरण के कारणभूत सिरीमल के पुत्र चतरू ने वि. सं. 1469 (सन् महापुरुषों की यशोगाथा भी भुला दी गई। विजेताओं 1512 ई.) में नेमीश्वरगीत लिखा था । इसमें की विजयवाहिनियों के घोर दु'दुभिनाद में उनकी वाणी तत्कालीन जैन समाज के विषय में उसने लिखा है तिरोहित होमई और उन सेनाओं के प्रयाण से उडी धुल एक सोवन की लंका जिसी, तोवर राउ सबल बलवीर में वह गौरवशाली अतीत दब गया। पराजय की यह भूयबल आपुनु साहस धीर, मानसिह जग जानिए । अनिवार्य नियति है। उस देवपत्तन के इतिहास-निर्माण ताके राज सूखी सब लोग, राज समान करहि दिन भोग की ओर सक्षम और समर्थ व्यक्ति आकर्षित हों, यह जैन धर्म बहुविधि चलै, श्रावग दिन जु करें षटकर्म॥ मंगल कामना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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