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पराजित कर उसने कच्छपघात विरुद धारण किया । इसी वंश में परम प्रतापी वज्रदामन् कच्छपघात हुआ जिसने नगाड़े बजाते हुए कन्नौज के राजा को पराजित कर उससे गोपाद्रिगढ़ जीत लिया । इस वज्रदामन कच्छपघात के राज्यकाल की एक जैन प्रतिमा सुहानिया
प्राप्त हुई है जिस पर वि. सं. 1034 (सन् 977 ई.) का मूर्तिलेख है और महाराजाधिराज वज्रदामन के राज्यकाल का उल्लेख है ।" ज्ञात यह होता है कि इस नवोदित कच्छपघात शक्ति के पीछे जैन मुनियों का मस्तिष्क कार्य कर रहा था । श्योपुर जिले के दुबकुण्ड नामक स्थान पर वि. सं. 1145 ( सन् 1088 ई.) के विक्रमसिंह के शिलालेख से यह ज्ञात होता है कि विक्रमसिंह के पिता अर्जुन कच्छपघात ने राजपाल प्रतीहार को मार डाला था ।" यह अर्जुन विद्याधर चन्देल का मित्र था । विक्रमसिंह के शिलालेख के रचयिता हैं शान्तिषेण के शिष्य विजयकीर्ति । वज्रदामन के समय के जैन मूर्तिलेख तथा विक्रम सिंह के दुबकुण्ड के शिलालेख के बीच 110 वर्ष का अन्तर है । ज्ञात यह होता है कि इस बीच उत्तरी ग्वालियर क्षेत्र में दिगम्बर जैन सम्प्रदाय पर्याप्त प्रभावशाली हो गया था । सासबहू के मन्दिर (बड़े) अर्थात् पद्मनाभ विष्णु के मन्दिर के विस्तृत शिलालेख का रचयिता यद्यपि गोविन्द का पुत्र मणिकण्ठ है, तथापि वह दिगम्बर यशोदेव द्वारा लिखित है ।" यह स्पष्ट है कि ग्वालियर के कच्छपघातों की राजसभा में दिगम्बर जैन मुनियों का पर्याप्त सम्मान था । वि. सं. 1152 (सन् 1095 ई.) के दुबकुण्ड के जैन मन्दिर के
वही क्र. 61 ।
शिलालेख' से यह भी ज्ञात होता है कि उस मन्दिर में महाचार्यवर्य देवसेन की पादुका का पूजन होता था । महाचार्य देवसेन ने इस क्षेत्र में धर्म की प्रतिष्ठा बहुत अधिक बढ़ाई थी ।
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सबसे विचित्र शिलालेख मधुसूदन कच्छपघात के शिव मन्दिर का है । वि. सं. 1161 (सन् 1104 ई.) के शिव मन्दिर के इस शिलालेख के रचयिता निर्ग्रन्थनाथ यशोदेव हैं । 10 उस समय भी ग्वालियर में हिन्दू और जैनों में पूर्ण सौहार्द्र था ।
परन्तु परम वैष्णव और शैव कच्छपघातों के राज्यकाल में कभी-कभी उनके राज्याधिकारी जैनियों को संकट उत्पन्न कर देते थे । कच्छपघात मूलदेव (भुवनैकमल्ल) के राज्यकाल में कुछ राज्याधिकारियों ने गोपाचलगढ़ पर स्थित वर्धमान महावीर के मन्दिर पूजा-अर्चा के लिए जैनियों का अबाध प्रवेश बन्द कर दिया । मलधारी गच्छ के श्री अभयदेव सूरि ग्वालियर पधारे और उन्होंने भुवनैकमल्ल को उपदेश दिया । राजा ने पुनः समस्त जैनियों को वर्धमान के मन्दिर में पूजा-अर्चा की अनुमति दे दी ।
6. द्विवेदी, ग्वालियर राज्य के अभिलेख क्र. 20 । 7. वही, क्र. 54 ।
8. द्विवेदी, ग्वालियर राज्य के अभिलेख, क्र. 55 तथा 56 ।
9. वही, क्र. 58
10.
कच्छपघातों के पश्चात् ग्वालियरगढ़ पुनः प्रतीहारों के अधिकार में आया । हमें कोई ऐसा साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिससे यह ज्ञात सके कि ग्वालियर के इन प्रतीहारों के समय में जैन धर्म की इस क्षेत्र में स्थिति थी। परन्तु यह सुनिश्चित है कि उन्होंने जैन धर्म को उत्सन्न करने का कोई कार्य नहीं किया ।
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