Book Title: Tirthankar Mahavira Smruti Granth
Author(s): Ravindra Malav
Publisher: Jivaji Vishwavidyalaya Gwalior

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Page 361
________________ जैनियों की चौरासी उपजातियों में एक "पद्मावती है वह जैनों द्वारा भी पूजित हो सकती है, परन्तु पुरवाल" भी है। इसी उपजाति में पन्द्रहवीं शताब्दी निश्चयात्मक रूप से उसे जैन प्रतिमा नहीं कहा जा में रइधू नामक जैन कवि हुआ था । वह अपने आपको सकता । उस युग के सभी व्यापारी यक्ष पूजा करते "पोमावइ-कुल-कमल-दिवायह" लिखता है । पद्मावती थे। कुबेर को भी वे यक्ष ही मानते थे । यही कारण पुरवाल अपना उद्गम ब्राह्मणों से बतलाते हैं और है कि प्राचीन राजमार्गों पर बसे नगरों में यक्षों की अपने आपको पूज्यपाद देवनन्दी की सन्तान कहते हैं। मूर्तियां बहुत मिलती हैं । वे उस समय के सार्थवाहों जैन जातियों के आधुनिक विवेचकों को पद्मावती के आराध्य देवता थे। उन सार्थवाहों में अधिकांश जैन पुरवाल उपजाति के ब्राह्मण-प्रसूत होने में घोर आपत्ति होते थे। है। परन्तु, इतिहास पद्मावती पुरवालों में प्रचलित अनुश्रुति का समर्थन करता है। जिसे वे “पूज्यपाद इसके आगे लगभग पांच-छह शताब्दियों तक देवनन्दी" कहते हैं वह पद्मावती का नाग सम्राट् चम्बल और सिन्धु के बीच के प्रदेश के सन्दर्भ में जैन देवनन्दी है । वह जन्म से ब्राह्मण था। उसकी मुद्राएं धर्म के विकास या अस्तित्व का कोई प्रमाण हमें नहीं अत्यधिक संख्या में पद्मावती में प्राप्त होती हैं जिन मिल सका है । यहाँ पर उल्लेखनीय है कि इसी बीच पर "चक्र" का लांछन मिलता है और "श्री देवनागस्य" गोपाचलगढ़ पर कुछ हलचल होने लगी थी। वहां या “महाराज देवेन्द्र" श्रु तिवाक्य प्राप्त होते हैं। किसी रूप में कुछ वस्ती बस गई थी। सन् 520 ई० देवनाग का अनुमानित समय पहली ईसवी शताब्दी में अर्थात्, मिहिरकुल हूण के राज्य के पन्द्रहवें वर्ष में है । पद्मावती पुरवालों में प्रचलित अनुश्रु ति तथा मातृचेट ने गोपागिरि पर सूर्य का मन्दिर बनवाया था, पद्मावती के देवनाग का इतिहास एक-दूसरे के पूरक यह तथ्य शिलालेख की साक्ष्य से सिद्ध है। मातृचेट के हैं । ज्ञात यह होता है कि देवनन्दी अथवा उसके किसी शिलालेख में गोपाद्रि का वर्णन संक्षिप्त रूप में दिया पुत्र ने जैन धर्म ग्रहण कर लिया था और उसकी संतति गया है-“गोप नाम का भूधर जिस पर विभिन्न धातुएं अपने आपको पद्मावती पुरवाल जैन कहने लगी। प्राप्त होती हैं ।'' इन धातुओं को प्राप्त करने के लिए जैन मुनि और जैन व्यापारी कभी एक स्थल पर बंध- मानव श्रम आवश्यक रहा होगा, और आसपास मानव कर नहीं रहते । ये पद्मावती पुरवाल समस्त भारत निवास हो गया होगा । कुछ साधु-सन्त भी वहां रहने में फैल गए, तथापि वे न तो पूज्यपाद देवनन्दी को भूले लगे होंगे, परन्तु वे सिद्ध योगी थे। और न अपनी धात्री पदमावती को ही भूल सके। गोपाचलगढ़ और उसके आस-पास जैन धर्म के ___ पद्मावती में अभी तक कोई प्राचीन जैन मूर्ति विकास के क्रम में यशोवर्मन के राजकुमार आम का नहीं खोजी जा सकती है। उसका कारण यही है कि नाम उल्लेखनीय है। प्रबन्धकोश के अनुसार, गोपालगिरि उस स्थल पर अभी कोई विस्तृत उत्खनन हुआ ही दुर्ग-नगर कान्यकुब्ज देश में था और उसे कन्नौज के नहीं है। वहां पर जो माणिमद्र यक्ष की प्रतिमा मिली प्रतापी राजा यशोवर्मन के पूत्र आम ने अपनी राजधानी 2. द्विवेदी, मध्यभारत का इतिहास, भाग 1, पृ. 471 । 3. द्विवेदी, ग्वालियर राज्य के अभिलेख क्र. 6161 ३२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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