Book Title: Tirthankar Mahavira Smruti Granth
Author(s): Ravindra Malav
Publisher: Jivaji Vishwavidyalaya Gwalior

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Page 366
________________ सरि का कार्य करता है वैष्णव कायस्थ और राज- वीरमदेव की राजसभा के एक रत्न नयचन्द्र सूरि नीति का उपदेश देते हैं जैन सरि। वीरमदेव के मंत्री का उल्लेख किया जा चुका है। श्रीकृष्णगच्छ के कुशराज जैन ने ग्वालियर क्षेत्र में जैन धर्म के विकास नयचन्द्र पर काष्ठा संघ के भट्टारक गुणकीर्ति का के लिए बहत कार्य किया था। इस कार्य में उसे राजा कितना प्रभाव था, यह ज्ञात नहीं है। यह अवश्य ने भी पूरा सहयोग दिया था। वि. सं. 1367 (सन् कहा जा सकता है कि ग्वालियर के तोमरों के राष्ट्र1410 ई.) में सुहानियां में वीरमदेव ने अम्बिकादेवी कवि नयचन्द्र सरि ने अपने राजा की राजसभा में ऐसा के मन्दिर का पुननिर्माण किया और उसी वर्ष पास में वातावरण उत्पन्न कर दिया था जिसके कारण जैनेतर ही चैत्रनाथ की विशाल जिन मूर्ति की प्रतिष्ठा की नागरिकों में जैन मुनि बहत आदरास्पद बन गये। आगे गई। एक शताब्दी तक ग्वालियर में जैन धर्म की जो उन्नति हुई उसमें नयचन्द्र सूरि का बहुत हाथ था। कुशराज ने स्वयं ग्वालियर में चन्द्रप्रभु का विशाल मन्दिर बनवाया और उसकी प्रतिष्ठा का उत्सव बहुत उस समय इस प्रदेश के हिन्द तथा जैन, सभी तुर्को समारोह के साथ किया। उसी समय उसने पद्मनाथ के अत्याचार से पीड़ित थे। उस समय शासक और से यशोधर चरित काव्य लिखने का आग्रह किया था। शासित वर्ग में विद्वेष की खाई बहत बढ़ गई थी । पद्मनाथ कायस्थ को इस रचना के लिए भटटारक शासित वर्ग ने यद्यपि बहुसंख्यक था, तथापि वह अपनी यशःकीर्ति का आशीर्वाद प्राप्त हुआ था और कुशराज जीवन-पद्धति को अपनाने के लिए स्वतंत्र नहीं था। इन जैन द्वारा प्रश्रय मिला था। परिस्थितियों में जो भी वीर किसी तुर्क सुल्तान से युद्ध करने का साहस करता था, उसे तत्कालीन बहुसंख्यक कुशराज का एक ताम्रपत्र भी प्राप्त हुआ है। यह समाज राष्ट्रीय वीर के रूप में सम्मान देता था । वि. सं. 1375 (सन् 1418 ई.) में उत्कीर्ण किया नयचन्द्र सूरि मे राष्ट्र की इस भावना का समादर गया था। इसके लेख से ज्ञात होता है कि कुशराज किया। हिन्दू-जैन विवाद से बहुत ऊपर उठकर उसने इस यंत्र की पूजा प्रतिदिन किया करता था । अपने युग की आकांक्षाओं और आवश्यकताओं को समझा । ब्राह्मण और जैन सम्प्रदायों के वन्दनीय वीरमदेव के राज्य काल में संभवतः भट्टारक देवताओं की द्विअर्थक वंदना के मंगल-श्लोक लिखकर गुणकीति की प्रेरणा से आचार्य अमृतचन्द्रकृत प्रवचन उसने अपने हम्मीर महाकाव्य का उद्देश्य स्पष्ट करते सार की तत्वदीपिका टीका की गई। अमरकीति के हुए लिखा-14 षटकर्मोपदेश की उस समय ग्वालियर में प्रतिलिपि की गई थी। इस प्रकार वीरमदेव के समय से इस क्षेत्र में न ल में मान्धाता, सीतापति राम और कंक केवल जैन मन्दिरों एवं मूर्तियों का निर्माण पुनः प्रारंभ (युधिष्ठिर) आदि पृथ्वी पर कितने राजा नहीं हो गए, हुआ, वरन् प्राचीन जैन ग्रन्थों का अवगाहन भी पर उन सब में अपने सत्वगुण के कारण, हम्मीर देव प्रारंभ हुआ। अद्वितीय और स्तवन योग्य पुरुष हैं । इस सात्विक वृत्ति 13. तोमरों का इतिहास, द्वितीय भाग, पृ. 50 । 14. हम्मीर महाकाव्य क्र.8,9 तथा 10। ३३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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