Book Title: Tirthankar Mahavira Smruti Granth
Author(s): Ravindra Malav
Publisher: Jivaji Vishwavidyalaya Gwalior

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Page 364
________________ अन्तःसलिला के समान जैन मुनि अपना प्रचार करते रहे । परन्तु इस क्षेत्र का गुलाम सुल्तानों द्वारा विजित किया जाना सभी भारतमूलीय धर्म साधनाओं के लिए घातक सिद्ध हुआ था । इल्तुतमिश ने आम के प्रसिद्ध महावीर मन्दिर को भी ध्वस्त कर डाला और उसे मस्जिद बना दिया । इसी बीच जैन धर्म नरवर में विकास कर रहा था। जैन धर्म की नरवर में वास्तविक उन्नति जज्जपेल्ल वंश के समय में हुई है । चाहडदेव से गणपतिदेव (सन् 1247-1298 ई.) तक यह राजवंश नरवर पर राज्य करता रहा; उन राजाओं के राज्यकाल में नरवर में जैन धर्म का बहुत अधिक विकास हुआ । वि. सं. 1314 ( सन् 1257 ई.) से वि. सं. 1324 (सन् 1267 ई.) के बीच निर्मित सैकड़ों जैन मूर्तियाँ नरवर में प्राप्त हुई हैं" नरवर के इन राजाओं के शिलालेखों के अधिकांश पाठ जैन साधुओं द्वारा विरचित हैं । इसी बीच कभी स्वर्णगिरि क्षेत्र में भी जैनपट्ट स्थापित हो गया था । रइधू ने सम्मइचरित में स्वर्णगिरि के काष्ठासंघ के भट्टारकों की वंश परम्परा दी है । उसमें दुबकुण्डवाले देवसेन को प्रथम भट्टारक बतलाया है । सन् 1411 ई. के पूर्व इस पट्ट पर देवसेन, विमल सेन, धर्मसेन तथा सहस्रकीर्ति पट्टासीन हो चुके थे । अगले भट्टारक गुणकीर्ति (सन् 14111429 ई.) ने अपना पट्ट ग्वालियर में स्थानान्तरित कर लिया था और यहीं से स्वर्णगिरि तथा नरवर के जैन संघों का नियंत्रण होने लगा था । चम्बल के किनारे स्थित ऐसाह के छोटे-से तोमर जागीरदार वीरसिंहदेव ने सन् 1394 ई. में गोपाचलगढ़ पर अधिकार कर लिया था और दिल्ली के सुल्तान नासिरुद्दीन को पराजित कर अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी ।" इस घटना के पूर्व ग्वालियर क्षेत्र में जैन धर्म के विकास के कुछ बिखरे हुए प्रमाण ही उपलब्ध हुए हैं। इस क्षेत्र में सन् 1400 ई. के पूर्व का न तो कोई जैन ग्रन्थ ही उपलब्ध हुआ है और न जैन मुनियों एवं श्रावकों की गतिविधियों की कोई जानकारी ही प्राप्त हुई है । कुछ मूर्तियों एवं शिलालेखों से यह ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में जब-जब किसी स्थानीय शक्ति ने तुर्क सुल्तानों के वर्चस्व से सम्पूर्ण या आंशिक त्राण प्राप्त किया तभी भारतमूलीय धर्मों के अनुयायियों ने अपने आराधना स्थलों का निर्माण या पुनर्निर्माण प्रारंभ कर दिया । यह भी सुनिश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हिन्दू तथा जैन धर्मों के अनुयायी, दोनों बिना किसी झगड़े के साथ-साथ अपने मार्ग अपनाते रहे ! परन्तु मूर्तियों और मन्दिरों का निर्माण मात्र धार्मिक चिन्तन के स्वरूप पर प्रकाश डालने के लिए पर्याप्त नहीं है । इन मूर्तियों को प्रश्रय देनेवाले मन्दिर सांस्कृतिक प्रवृत्तियों के प्रश्रय के प्रमुख स्थल होते थे । दुर्भाग्य से जो — कुछ अवशिष्ट है वह उस धर्म साधना का बाह्य रूप ही है, उसकी आत्मा हमें उपलब्ध नहीं हो सकी है । उस समय के समस्त मन्दिर तथा उनमें विरचित साहित्य कालगति अथवा मानव द्वारा नष्ट कर दिए गए और वे प्रमाण अनुपलब्ध हो गए जिनसे उस युग के चिन्तन के स्वरूप को जाना जा सकता । परन्तु यह मानना भूल होगी कि उस समय के इस क्षेत्र के जैन साहित्य का अब अस्तित्व है ही नहीं । स्वर्णगिरि, नरवर, ग्वालियर, मगरौनी, झांसी आदि के जैन मन्दिरों के ज्ञान भण्डारों में हजारों ग्रन्थ अभी भी सुरक्षित हैं, जिनकी प्रति वर्ष धूपदीप देकर 11, नरवर और शिवपुरी क्षेत्र में वि. सं. 1206 ( 1149 ई.) से ही जैन मूर्तियाँ प्राप्त होने लगती हैं । देखिये, द्विवेदी, ग्वालियर राज्य के अभिलेख क्र. 72, 73, 74, 76, 77 तथा 84 । 12. द्विवेदी, तोमरों का इतिहास, द्वितीय भाग, पृ. 28-29 | Jain Education International ३३० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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