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यद्यपि सरस्वती माँ के वरद पूत्र का जीवन से-अधिक उपस्थिति के लिए उनके नाम का प्रयोग आध्यात्मिक साधनाओं से ओतप्रोत है, तथापि साहित्यिक आकर्षण के रूप में किया जाता था। गृहस्थ होने पर व सामाजिक क्षेत्र में भी उनका प्रदेय कम नहीं है। भी उनकी वृत्ति साधूता की प्रतीक थी। आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी उन दार्शनिक साहित्यकारों एवं क्रान्तिकारियों में से हैं जिन्होंने आध्यात्मिक
पंडितजी के पिता का नाम जोगीदासजी एवं माता क्षेत्र में आई हई विकृतियों का सार्थक व समर्थ खण्डन
का नाम रम्भादेवी था। वे जाति से खण्डेलवाल थे और ही नहीं किया. वरन् उन्हें जड़ से उखाड़ फेंका । उन्होंने
गोत्र था गोदीका, जिसे भौंसा व बड़जात्या भी कहते तत्कालीन प्रचलित साहित्य भाषा ब्रज में दार्शनिक
हैं। उनके वंशज ढोलाका भी कहलाते थे। वे विवाहित
थे पर उनकी पत्नि व ससुराल पक्षवालों का कहीं विषयों का विवेचक ऐसा गद्य प्रस्तुत किया जो उनके
कोई उल्लेख नहीं मिलता । उनके दो पुत्र थे-हरीचन्द्र पूर्व विरल है।
और गमानीराम । गुमानीराम भी उनके समान उच्च पंडितजी का समय ईस्वी का अठारहवीं सदी का कोटि के विद्वान और प्रभावक आध्यात्मिक प्रवक्ता मध्यकाल है। वह संक्रान्तिकालीन युग था। उस समय थे। उनके पास बड़े-बड़े विद्वान भी तत्व का रहस्य राजनीति में अस्थिरता सम्प्रदायों में तनाव, साहित्य समझने आते थे। पंडित देवीदास गोधा ने "सिद्धान्तसार में शृगार, धर्म के क्षेत्र में रूढ़िवाद, आर्थिक जीवन में संग्रह टीको प्रशस्ति" में इसका स्पष्ट उल्लेख किया विषमता एवं सामाजिक जीवन में आडंबर, ये सब है। पंडित टोडरमल जी की मृत्यु के उपरान्त वे पंडितजी अपनी चरम सीमा पर थे। उन सब से पडितजी को संघर्ष द्वारा संचालित धार्मिक क्रान्ति के सूत्रधार रहे । उनके करना था जो उन्होंने डटकर किया और प्राणों की नाम से एक पंथ भी चला जो 'गुमान पंथ' के नाम से बाजी लगाकर किया।
जाना जाता है।
पंडित टोडरमलजी गम्भीर प्रकृति के आध्यात्मिक पंडित टोडरमलजी की सामान्य शिक्षा जयपुर की महापुरुष थे । वे स्वभाव से सरल, संसार से उदास, धुन एक आध्यात्मिक (तेरापथ) शैली में हुई, जिसका बाद के धनी, निराभिमानी, विवेकी अध्ययनशील, प्रतिभावान में उन्होंने सफल संचलन भी किया। उनके पूर्व बादा बाह्याडंबर विरोधी, दृढ़ श्रद्धावी, क्रान्तिकारी, सिद्धान्तों बंशीधर जी उक्त शैली के संचालक थे । पंडित टोडरकी कीमत पर कभी न झुकनेवाले, आत्मानुभवी, मलजी गूढ तत्वों के तो स्वयंबद्ध ज्ञाता थे । 'लब्धिसार' लोकप्रिय प्रवचनकार, सिद्धान्त ग्रन्थों के सफल टीकाकार व "क्षपणासार" की संदृष्टियाँ आरम्भ करते हुए वे एवं परोपकारी महामानव थे।
लिखते हैं "शास्त्रविषलिख्या नाहीं और बतावने वाला
मिल्या नाहीं'। ..वे विनम्र दृढ़श्रद्धानी विद्वान एवं सरल स्वभावी थे। वे प्रामाणिक महापुरुष थे । तत्कालीन आध्यात्मिक संस्कृत, प्राकृत, और हिन्दी के अतिरिक्त उन्हें समाज में तत्वज्ञान संबंधी प्रकरणों में उनके कथन प्रमाण कन्नड़ भाषा का भी ज्ञान था। मूल रथों को वे कन्नड़ के तौर पर प्रस्तुत किए जाते थे। वे लोकप्रिय आध्या- लिपि में पढ़-लिख सकते थे । कन्नड़ भाषा और लिपि त्मिक प्रवक्ता थे। धार्मिक उत्सवों में जनता को अधिक का ज्ञान एवं अभ्यास भी उन्होंने स्वयं किया । वे कन्नड़
3. इन्द्रध्वज विधान महोत्सव पत्रिका ।
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