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गोपाचल का एक विस्मृत महाकवि - रइधू
भारतीय वाङ्गमय के उन्नयन में जिन वरेण्य साहित्यकारों ने अथक परिश्रम एवं अनवरत साधना करके अपना उल्लेख्य योगदान किया है, उनमें महाकवि रइधू अपना प्रमुख स्थान रखते हैं । उनका अवतरण एक ऐसे समय में हुआ था जब राजनीतिक विषमताओं एवं युद्ध - विषिकाओं से जन-जीवन जर्जर हो रहा था, तलवारों और भालों की निरन्तर बौछारों से शान्ति मी शान्ति की खोज कर रही थी, तब रघु ने जनमानस की वेदना का अनुभव किया और एक लोकनायक कवि के रूप में अपनी अमृतस्रोतस्विनी को प्रवाहित किया । उनकी रचनाओं का विषय- वैविध्य, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी भाषाओं पर असाधारण पाण्डित्य, इतिहास एवं संस्कृति का तलस्पर्शी ज्ञान, समाज एवं राष्ट्र को साहित्य, संगीत, कला एवं राष्ट्र धर्म के प्रति जागरूक करने की क्षमता अन्यत्र दुर्लभ है।
महाकवि का निवास-स्थल
धू के जन्मस्थान एवं जन्मतिथि विषयक स्पष्ट उल्लेख अभी तक प्रकाश में नहीं आ सके । किन्तु इस तथ्य के प्रचुर प्रमाण उपलब्ध हैं कि कवि की साहित्य
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साधना का प्रमुख स्थल गोपाचल (ग्वालियर) दुर्ग था । उसने गोपाचल की महिमा का गान बड़े ही श्रद्धासमन्वित भाव से विस्तारपूर्वक किया है। उसके साहित्य में सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रसंगों में कई ऐसे वर्णन एवं शब्दावलियाँ प्राप्त हैं, जिनसे यही सिद्ध होता है कि उक्त कवि गोपाचल का निवासी था ।"
डा० राजाराम जैन
काल-निर्णय
महाकवि का जन्म कब एवं किस वर्ष हुआ, यह जानकारी भी अभी तक अप्राप्त है, किन्तु कवि ने अपनी एक रचना 'सुक्कोसलचरिउ' की अन्त्य - प्रशस्ति में उसका रचना समाप्ति काल वि० सं० 1496 दिया है' तथा उसमें अपनी पूर्ववर्ती कई रचनाओं के उल्लेख किये हैं एवं उन्हीं उल्लिखित रचनाओं की प्रशस्तियों में भी अपनी पूर्व - पूर्व- रचित रचनाओं के उल्लेख किये हैं, जिनकी संख्या 18 है। इससे विदित होता है कि कवि वि० सं० 1496 के पूर्व ही एक विशाल साहित्य का प्रणयन कर चुका था, क्योंकि वि० सं० 1496 के बाद ही उसकी मात्र पाँच रचनाएँ ही प्राप्त 1 पूर्वोक्त 18 ग्रंथों के परिमाण को देखते हुए तथा उनके प्रथम गुरु गुणकीत्ति भट्टारक वि० सं० 1455 के
1.
- साहित्य का आलोचन स्मक परिशीलन (डा० राजाराम जैन) पृ० 44-45 । 2. सुक्कोसल चरिउ 4/23/1-3
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