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स्तुति की, और यह प्रार्थना की, कि भगवन् ! हमें चौथी कृति 'मेघमाला ब्रतकथा' है। इस कथा आपका ही सहारा है, हम सब लोगों की, इस विपत्ति की उपलब्धि भट्टारक हर्षकीर्ति अजमेर के शास्त्र से रक्षा हो । ऐसा कहने के पश्चात् भी लोगों को यह भंडार के एक गुटके पर से हुई है। यह कथा 115 विश्वास न था कि इस विपत्ति से हमारा संरक्षण हो कउवक और 211 श्लोकों के प्रमाण को लिए हुए है। जावेगा। किन्तु उसी समय जनता को यह स्वयं आभास इस ग्रन्थ की आदि अन्त प्रशस्ति में इस कथा के रचने होने लगा, कि घबड़ाओ नहीं, शान्त चित्त से रहो, में प्रेरक, तथा कथा कहां बनाई गई, वहां के राजा सब शान्ति हो जायेगी। और लोगों के देखते-देखते और कथा का रचना काल दिया हुआ है। ही वह भयंकर विपदा सहसा ढल गई । लोगों को अभय मिला, प्रजा में शान्ति होगई, चित्त में निर्भयता मेघमाला व्रत भाद्रपद मास की प्रथम प्रतिपदा से आई। यह दृश्य देख जनता पार्श्वनाथ की जय बोलने शुरू करे, उस दिन उपवास करे, और जिन पूजा लगी। जो लोग भय से भाग गये थे, वे अधिक दुःखी विधान तथा अभिषेक करे, सारा दिन धर्म ध्यान में हुये, किन्तु नगर में रहनेवाले जन सुखी रहे। यह व्यतीत करे । और पांच वर्ष पर्यन्त इस ब्रत का अनुकवि का आँखों देखा घटना वर्णन कवि के शब्दों में ष्ठान करे । पश्चात उसका उद्यापन करे, उद्यापन की इस प्रकार है :
शक्ति न हो तो दुने दिनों तक व्रत पाले। जिन लोगों
ने उस समय इस व्रत का पालन किया था, कवि ने जब सुलीय उ राणि संग्राम, रणथं मुवि दुग्ग गढु । उनका नाम भी प्रशस्ति में अंकित किया है । उससे जब इब्राहिम साहि कोपिउ, बलु बोली मोकलिउ। ज्ञात होता है कि उस समय चम्पावती में इस व्रत के बोलु कबल सबू तेण लोपिउ, जिवलग उग्झलि हाय सउं अनेक अनष्ठाता थे, जिन्होंने निष्ठा से ब्रत का पालन मेच्छ मूढ भय वज्जि, चंपावति बिणु देस सब,गणदहइ किया था। उस समय वहाँ राजा रामचन्द्र का राज्य
दिसभजि ॥21 था, और भट्टारक प्रभाचन्द्र वहाँ मौजूद थे।
तबहि कंपिउ सथल पुरलोउ, कोइ न कसु वर जिउ रहइ भाजि दहै दिसि जाण लगे, मिलिविकरी तब बीनती।
इस ग्रन्थ की आदि प्रशस्ति में बतलाया है कि पारसणाह स्वामी सु अगै, सवणा जोतिक केवलि ।
कि ढ़ाहड देश के मध्य में चम्पावती (जयपुर राज्य चितु न करै विसासु, कालि पंचमइ पास पहु, जुग
वर्तमान चारसू) नाम की एक नगरी है, जो उस समय लगउ तु आस ॥22॥
धन-धान्यादि से विभूषित थी और जिसके शासक राजा
रामचन्द्र थे । वहाँ भगवान पार्श्वनाथ का मन्दिर भी एम जं पि विकरि विथुई पुज्ज, मल्लिदास पंडित पमुह। बना हुआ था जिसमे तात्कालिक भट्टारक प्रभाचन्द्र स इह था समीपु चायउ, उच्चावंत न उच्चयउ। गौतम गणधर के समान बैठे थे और जो नगर हुवो जाणि सुरगिरि सवीयउ, इणविधि परतिउवारतिहु। निवासी भव्यजनों को धर्मामृत का पान करा रहे थे । पूरि वि हरी भणंति, जयवंतह हो पास पहु, जेण करी उनमें मल्लिदास नामक वणिक पुत्र ने कवि ठकुरसी से
सुख सांति ॥24॥
मेघमाला ब्रत कथा कहने की प्रेरणा की । उस समय कवि की तीसरी कृति 'जन चउबीसी' है, जिसमें चम्पावती नगरी में अन्य समाजों के साथ खंडेलवाल जैनियों के चौबीस तीर्थ करों का स्तवन किया गया जाति के अनेक घर थे जिनमें अजमेरा और पहाडया है । स्तवन सुन्दर है।
गौत्रादि के सज्जनों का निवास था, जो श्रावकोचित
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