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है कि किस प्रकार के कंपन का और कितनी मात्रा में उप- योगः' । अर्थात् मन, बचन और काया के योग से जो योग किया जाय कि परमाणुओं का समूह हमारी इच्छा एक प्रकार का विशेष रूप से कंपन होता है अथवा के अनुसार कार्यरूप में परिणत हो । भगवान महावीर जिसे कंपन क्रिया कहा जाता है उस कम्पनानुसार ही
कहा है कि हमारे मुंह से जो शब्द निकलते हैं वे परमाणुओं का स्वतः संचय होता रहता है। जिस हमें या दूसरों को सुनाई नहीं पड़ते। जो भाषा या प्रकार चुम्बकीय शक्ति से लोह के परमाण स्वत: खिच शब्द हमारे मुंह से निकलते हैं, वे इतने सूक्ष्म और कर उसमें आ मिलते हैं उसी प्रकार अपने गुणों के तीब्र गतिशील होते हैं कि एक समय जिसका दो भाग अनुसार स्वधर्मी स्वधर्मी में आकर मिलते रहे हैं और नहीं हो सकता, उतने समय में सारे लोकाकाश में वे कार्यरूप में परिणत होते रहते रहते हैं। उसमें उतारफैल जाते हैं और दूसरे समय में लोकाकाश के अंतिम चढाव अथवा हानि और वद्धि जो होती रहती है उसका हिस्से से टकराकर समूह रूप में परिणित होते हैं तब कारण आपस में मिलकर और पुनः अलग-विलग हो सामूहिक परमाणु में ध्वनि उत्पन्न होती है जो हमें जाने में होती है। सामान्य दृष्टि से कम्पन की मात्रा सुनाई पड़ती है। इसकी पुष्टि शकभाष्य के प्रथम खण्ड एक सैकेण्ड में 240 मान ली है और उस ध्वनि को और भगवतीसूत्र, परमाणु उद्देशक, पुदगल उद्देशक मन्द, मध्य तथा तीब्र में विभाजित की है जो 22 और भाषा उद्देशक में मिलती है। उपरोक्त उद्देशकों श्रतियों के नाम से कही जाती है। तीब्र में 3800 से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'परमाणु' पुदगल के रूप मात्रायें संगीत के रूप में मान ली गयी है। उससे में किस प्रकार परिवर्तित होता है और भाषा वर्गणाओं अधिक मात्रा होने पर वह ध्वनि संगीत न कहलाकर के लिये कितने परमाणुओं एवं परमाणुओं के स्कंधों की कोलाहल की श्रेणी में आती है। कहने का आशय यह आवश्यकता पड़ती है, जो श्रोतेन्द्रियों के ग्रहण योग्य है कि सगीत-शास्त्र में जो श्र तियों और ध्वनि मात्राओं बनती हैं।
की रूपरेखा तैयार की है, वह सक्ष्म दृष्टि से न कर
स्थूल दृष्टि से है, क्योंकि कार्य रूप में और इंद्रियों के वैशेषिक और न्याय दर्शन में भी परमाण के विषय ग्राह्य योग्ण कितना कम्पन कम से कम आवश्यक है, में बताया गया है कि सूर्य की किरणें छिद्र में से होकर ताकि वह व्यवहार में सुचारु रूप से उपयोग हो सके । बाहर आती हैं तथा उसमें जो छोटे-छोटे अति सूक्ष्म इसलिये उस ध्वनि का नाम संगीत रखा-'सम' अर्थात् रजकण दिखाई पड़ते हैं उनका साठवां भाग परमाणु सम्यक प्रकार में श्रोतेन्द्रिय की शक्ति में किसी प्रकार से मान लिया गया है। परन्तु जैन दर्शनकारों का कथन विकार पैदा न करे उसकी शक्ति से वृद्धि और सुचारू है कि अनन्त परमाणुओं का स्कंध बनने पर भी वे रूप से उसमें सहायक भूत हो वह सम्यक ध्वनि ही दृष्टिगोचर नहीं हो सकते। जैन दर्शनानुसार अनन्त संगीत कही जाती है । संगीत में तीन अक्षर है परमाणु के स्कंध वाले, स्कंधों से भी जो अनन्त हो सं-गी-त बीच के अक्षर 'गी' अर्थात् ग्रीवा वाणी को और जब उसका पिण्ड बनता है तब वे इन्द्रिय-ग्राह्य निकालने से, 'संत' बचता है। संतों की 'गी'--अर्थात बनते हैं। ऊपर कह आये हैं कि हर एक परमाण में वाणी को संगीत कहते हैं। रागद्वेष से रहित संतों के अपनी विशेष वर्गण शक्ति रहती है । जिस परमाणुओं हृदय के भाव, उनके उद्गार जो निकलते थे, उसमें से भाषा बनती है उन्हें जैन दर्शन में भाषा वर्गणा कहा ऐसी शक्ति थी कि लोग आकर्षित हो जाते थे और है। परमाणुओं का स्कंध किस तरह बनता है इसके उसको ही भव्य प्राणी लक्ष्य मानकर अनुकरण करते विषय में कहा गया है कि, 'काय वाङग्रा मन : कर्म- और वही संगीत कहा जाता था।
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