________________
चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचति मूलाइं पुणव्भवस्स।
ये चार कषाय (क्रोध-मान-माया-लोभ) जन्म-मरण रूपी लता के मूल को सींचते हैं। कषाय से जन्म-मरण की परम्परा बढ़ती है।
कसाया अग्गिणो वुत्ता सूय सील तवो जलं ।
कषाय अग्नि है, श्रु त (ज्ञान), शील (सदाचार) और तप उसे बुझाने वाले जल हैं।
केवल ज्ञान
संभिन्नं पासतो, लोगमलोगं च सव्वओ सव्वं । तं नस्थि जंन पासइ, भूयं भव्वं भविस्सं च ।।
केवल ज्ञान लोक और अलोक को सर्वतः परिपूर्ण रूप से जानता है। भूत, भविष्य और वर्तमान में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे केवलज्ञान नहीं जानता ।
केवली
केवलणाणदिवायर-किरणकलाव-प्पणासिअष्णाणो। णवकेवललधुग्गम-पावियपरमप्पववएसो।।। असहायणाणेदंसण-सहिओ विहु केवली ह जोएण । जत्तो त्ति सजोइजिणो, अणाइणिहणारिसे वृत्तो ॥
केवलज्ञान रूपी दिवाकर की किरणों के समूह से जिनका अज्ञान अन्धकार सर्वथा नष्ट हो जाता है, तथा नौ केवललब्धियों (सम्यकत्व, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य, दान, लाभ, भोग व उपभोग) के प्रकट होने से जिन्हें परमात्मा की संज्ञा प्राप्त हो जाती है, वे इन्द्रियादी की सहायता की अपेक्षा न रखने वाले ज्ञान-दर्शन से युक्त होने के कारण केवली और काय योग से युक्त होने के कारण सयोगी केवली (तथा घातिकर्मों के विजेता होने के कारण) जिन कहलाते हैं । ऐसा अनादिनिधन जिनागम में कहा गया है।
चारित्र
चरणं हवइ सधम्मो, धम्मो सो हवइ अप्पसमभावो ।
चारित्र धर्म है। यह धर्म आत्मा का साम्य भाव
एयं चयरित्तकरं चरितं होइ आहियं ।
कर्मों के चय-राशि को रिक्त (शून्य) करने के कारण इसे चारित्र कहा गया है ।
जीव
नाणं च दसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य एवं जीवस्स लक्खणं ॥
ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग ये जीव के लक्षण हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org