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सिद्धान्त को स्वीकार करनेवाला ही वस्तुतः आत्म वादी, लोकवादी, कर्मवादी एवं क्रियावादी है।
जे अत्ताणं अब्भाइक्खति से लोगं अब्भाइक्खति ।
जो अपनी आत्मा का अपलाप (अविश्वास) करता है, वह लोक (अन्य जीव समूह) का भी अपलाप करता
पुण्यकर्म का मूल आत्मशुद्धि है ।
आत्म शुद्धिविसोहि-मूलाणि पुण्णाणि आत्मा अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुप्पठिओ ।।
आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता है और विकर्ता (भोक्ता) है। सत्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है।
जीव (आत्मा) शाश्वत भी है, अशाश्वत भी । द्रव्यदृष्टि (मूल चेतन स्वरूप) से शाश्वत है। भाव दृष्टि (मनुष्य-पशु आदि पर्याय) से अशाश्वत है।
जीवा सिय सासया सिय असासया, दव्वट्ठयाए सासया भावट्ठयाए असासया ।
जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया। जेण वियाणइ से आया तं पडुच्च पडिसंखाए ।
जो आत्मा है वह विज्ञाता है। जो विज्ञाता है, वह आत्मा है । जिससे जाना जाता है, वह आत्मा है। जानने की इस शक्ति से ही आत्मा की प्रतीति होती
अरसमरूवमगंधं, अव्वत्तं चेदणागुणमस । जाण अलिंगग्गहणं, जीवमणिहिट ठसंठाणं ।।
शुद्ध आत्मा वास्तव में अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, नेतन्य-गुणवाला, अशब्द, अलिङ्गग्राह्य (अनुमान का अविषय) और संस्थान रहित है।
आत्मज्ञान
जो अप्पाणं ना णदि, सो सत्यं जाणदे सव्वे ।
जो आत्मा को जानता है वह सब शास्त्रों का ज्ञाता है।
विसए विरत्तचित्तो जोई, जाणेइ अप्पाणं ।
विषयों से विरक्त चित्तवाला योगी आत्मा को जान लेता है।
तं झायह ससहावं संसरण जेण णासेइ ।
आत्मा के अपने (शुद्ध) स्वभाव को ध्याओ, ताकि जन्ममरण से छुटकारा मिल सके।
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