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हुए जिनका समय 100 वर्ष है। उनके बाद विशाल, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल, गंगदेव और सुधर्म में ग्यारह आचार्य क्रमश: दश पूर्वधारी हुए। उनका काल 183 वर्ष है। उनके बाद नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु प्रबसेन और कस ये पाँच आचार्य ग्यारह अंग के धारी हुए । उनका समय 220 वर्ष हैं । उनके बाद भरत क्षेत्र में कोई भी आचार्य ग्यारह अंग का धारी नहीं हुआ । तदनन्तर सुभद्र, यशोमद्र, यशोवाह और लोह ये चार आचार्य आचारंग के धारी हुए। ये सभी आचार्य शेष ग्यारह अंग और चौदह पूर्व के एकदेश के ज्ञाता थे उनका समय 118 वर्ष होता है । इस प्रकार गौतम गणधर से लेकर लोहाचार्य पर्यन्त कुल काल का परिणाम 683 वर्ष हुआ अहंबली आदि आचायों का समय इस काल परिमाण के बाद आता है ।
(1) तीन केवली
(2) पाँच श्रुतकेवली
(3) 11 दश पूर्वधारी
- 62 वर्ष - 100 वर्ष
- 183 वर्ष
( 4 ) पाँच ग्यारह अंग के धारी -- 220 वर्ष (5) चार आचारंग वारी
- 118 वर्ष
कुल 683 वर्ष
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नन्दिसंध की प्राकृत पट्टावली कुछ भिन्न है। उसमें उपर्युक्त लोहाचार्य तक का समय कुल 565 वर्ष बताया है । पश्चात् एकांगधारी अर्हद्बलि, माघनन्दिद, घरसेन, भूतबलि, और पुष्पदन्त इन पाँच आचार्यों का काल क्रमश: 28, 21, 191 30 और 20 वर्ष निर्दिष्ट है। इस दृष्टि से पुष्पदन्त और भूतबली का समय 683 वर्ष के ही अन्तर्गत आ जाता है। इस प्रकार धवला आदि ग्रन्थों में उल्लिखित और नन्दिसंघ की
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प्राकृत पट्टावली में में उद्धृत इन दोनों परम्पराओं में आचायों की कालगणना में 118 वर्ष ( 683-565= 118 ) का अन्तर दिखाई देता है पर यह अन्तर एकादशांगधारी आचारांगधारी आचायों में ही है, केवली, श्रुतकेवली और दशपूर्वधारी आचार्यों में नहीं ।
आचार्य भद्रबाहु
आचार्य कालगणना की उक्त दोनों परम्पराओं को देखने से यह स्पष्ट है कि जम्बूस्वामी के बाद होनेवाले युगप्रधान आचार्यों में भद्रबाहु ही एक ऐसे आचार्य हुए हैं, जिनके व्यक्तित्व को दोनों परम्पराओं ने एक स्वर में स्वीकार किया है । बीच में । बीच में होनेवाले प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र और सभृतिविजय आचार्यों के विषय में एकमत नहीं । भद्रबाहु के विषय में भी जो मनभेद हैं वह बहुत अधिक नहीं । दिगम्बर परम्परा भद्रबाहु का कार्यकाल 29 वर्ष मानती है और उनका निर्वाण महावीर निर्वाण के 162 वर्ष बाद स्वीकार करती है पर श्वेताम्बर परम्परानुसार यह समय 170 बर्ष बाद बताया जाता है और उनका कार्यकाल कुल चौदह वर्ष माना जाता है। जो भी हो दोनों परम्पराओं के बीच आठ वर्ष का अन्तराल कोई बहुत अधिक नहीं है ।
परम्परानुसार श्रुतकेवली भद्रबाहु निमित्तज्ञानी थे। उनके ही समय संघभेद प्रारम्भ हुआ है। अपने निमित्तज्ञान के बल पर उत्तर में होनेवाले द्वादश वर्षीय दुष्काल का आगमन जानकर भद्रबाहु ने बारह हजार मुनि संघ के साथ दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। चन्द्रगुप्त मौर्य भी उनके साथ थे। अपना अन्त निकट जानकर उन्होंने संघ को चोल, पाण्डय प्रदेशों की बोर जाने का आदेश दिया और स्वयं श्रमणवेलगोल में ही कालमप्र नामक पहाड़ी पर समाधिमरण पूर्वक देह
8. घवला, आदिपुराण तथा श्रुतावतार आदि ग्रन्थों में भी लोहाचार्य तक के आचार्यों का काल 683 वर्ष
ही दिया गया है।
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