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कोई अलग प्रधान नहीं है किन्तु साम्य अवस्था को प्राप्त अनिश्चितता नहीं है क्योंकि प्रत्येक वस्तु स्वरूप से सत् वे ही गुण प्रधान नाम से कहे जाते हैं। अत: प्रधान के और पर रूप से असत् होती है यह निश्चित है। इसके अवयव रूप गुणों का और उनके समुदाय रूप प्रधान का बिना वस्तु व्यवस्था नहीं बनती । वस्तु का वस्तुत्व दो परस्पर में कोई विरोध नहीं है।
मुद्दों पर स्थापित है-स्वरूप का ग्रहण और पर रूपों
का त्याग । यदि इनमें से एक भी मुद्दे को अस्वीकार बैशेषिक दर्शन में सामान्य को अनुवृत्ति रूप और
किया जाय तो वस्तु का वस्तुत्व कायम नहीं रह सकता। विशेष को व्यावृत्ति रूप माना गया है। किन्तु पृथिवीत्व
यदि वस्तु का अपना कोई स्वरूप न हो तो बिना आदि को सामान्य विशेष रूप स्वीकार किया है। एक स्वरूप के वह वस्त नहीं हो सकती । इसी तरह स्वरूप ही पृथिवीत्व अपने भेदों में अनुगत होने से सामान्य रूप ।
की तरह यदि वह पर रूप को भी अपनाले तो भी उसकी और जलादि से व्यावत्ति कराने से विशेष रूप माना
अपनी स्थिति नहीं रहती। वह तो सर्वात्मक हो गया है, इसी से उसे सामान्य विशेष कहा गया है।
जायेगी।
विज्ञानाद्वैतवादी एक ही विज्ञान को ग्राह्याकार, स्याद्वादग्राहकाकार और संवेदनाकार इस प्रकार तीन आकार रूप स्वीकार करते हैं। तथा सभी दार्शनिक पूर्व इस प्रकार जब वस्तु परस्पर में विरुद्ध प्रतीत होनेअवस्था को कारण और उत्तर अवस्था को कार्य स्वी- वाले धर्मों का समूह है तो उसको जानना उतना कठिन कार करते हैं । अतः एक ही पदार्थ में अपनी पूर्व और नहीं है जितना उसे कहना कठिन है। क्योंकि एक उत्तर पर्याय की दृष्टि से कारण और कार्य का व्यवहार ज्ञान अनेक धर्मात्मक वस्तु को एक साथ जान सकता निर्विरोध होता है। उसी तरह सभी पदार्थ विभिन्न है किन्तु शब्द के द्वारा एक समय में वस्तु के एक ही अपेक्षाओं से अनेक धर्मवाले होते हैं। इसे ही अनेकान्त धम का कहा जा सका
धर्म को कहा जा सकता है। उस पर भी शब्द की कहते हैं।
प्रवत्ति वक्ता के अधीन है। वक्ता वस्तु के अनेक धर्मों
में से किसी एक धर्म को मुख्य करके बोलता है। जैसे इस अनेकान्तवाद का खण्डन बादरायण के सुत्र देवदत्त को उसका पिता पुत्र कहकर बुलाता है और 'नैकस्मिन्नसंभवात' (2/5/33) में मिलता है। इसकी पुत्र पिता कहकर पुकारता है। किन्तु देवदत्त न केवल व्याख्या में स्वामी शंकराचार्य ने अनेकान्तवाद पर जो पिता है और न केवल पुत्र है। वह तो दोनों है। किन्तु सबसे बड़ा दूषण दिया है वह है 'अनिश्चितता' । पिता की दृष्टि से देवदत्त का पुत्रत्व धर्म मुख्य है और उनका कहना है कि 'वस्तु है और नहीं भी है' ऐसा पुत्र की दृष्टि से पितत्व धर्म मुख्य है। शेष धर्म गौण कहना अनिश्चितता को बतलाता है। और अनिश्चितता है क्योंकि अनेक धर्मात्मक वस्तु के जिस धर्म की विवक्षा संशय को पैदा करती है । किन्तु ऊपर स्पष्ट किया गया होती है वह धर्म मुख्य और शेष धर्म गौण होते हैं। है कि वस्तु स्वरूप से सत् है और पर रूप से असत् है। अत: वस्तु के अनेक धर्मात्मक होने और शब्द में एक यह निश्चित है-इसमें अनिश्चितता को स्थान नहीं समय में उन सब धर्मों को कहने की शक्ति न होने से है। देवदत्त पिता भी है और पूत्र भी है, इसमें जैसे तथा वक्ता का अपनी-अपनी दृष्टि से वचन व्यवहार कोई अनिश्चितता नहीं है क्योंकि वह अपने पुत्र की करते देखकर, वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझने में अपेक्षा पिता और अपने पिता की अपेक्षा पुत्र है, उसी श्रोता को कोई धोखा न हो, इसलिये अनेकान्तवाद में से तरह वस्तु सत् भी है और असत् भी, इसमें कोई स्याद्वाद का आविष्कार हुआ।
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