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संयम
वय-समिदि-कसायाणं, दंडाणं तह इंदियाण पंचण्डं। धारण-पालण-णिग्गह-चाय-जओ संजमो भणिओ ।।
व्रत धारण, समिति पालन, कषाय निग्रह, मनवचन-काया की प्रवृति रूप दण्डों का त्याग, पंचेन्द्रियजय-इन सबको संयम कहा जाता है।
समताचारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अपणो हु समो ।।
वास्तव में चरित्र ही धर्म है । इस धर्म को शमरूप कहा गया है। मोक्ष व क्षोभ से रहित आत्मा का निर्मल परिणाम ही शम या समतारूप है।
सत्य
अविस्सासो य भूयाण तम्हा मोसं विवज्जए।
झूठ बोलने वाला सभी लोगों का विश्वास खो बैठता है, इसलिये असत्य भाषण करना उचित नहीं।
सच्चं हि तवो सच्चम्मि संजमो तह य ऐसया वि गणा सच्चं णिवंधणं हि य गुणाणमुदधीव मच्छाणं ।।
सत्य ही तप है। सत्य में ही संयम और रोष सभी गुण समाहित हैं। जैसे समुद्र मछलियों का आश्रय स्थल है, बैसे ही सत्य सभी गुणों का आश्रय स्थल है।
असच्चमोसं सच्चं च अणवज्जमकक्कसं । समुप्पेहमसंदिद्ध गिर भासेज्ज पन्नव ।।
बुद्धिमान को ऐसी भाषा बोलनी चाहिये जो व्यवहार में सत्य हो, तथा निश्चय में भी सत्य हो, निबंध हो, अकर्कश प्रिय हो, हितकारी हो तथा असंदिग्ध हो।
सम्यकत्व
जीवादि सद्दहणं, सम्मत्तं जिणवरेहि पण्णत्तं । ववहारो णिच्छयदो, अप्पा णं हवइ सम्मत्तं ।।
व्यवहार लय से जीवादि तत्वों के श्रद्धान को जिन देव ने सम्यक्तब कहा है। निश्चय से तो अत्मा ही सम्यग्गर्शन है।
तहियाणं तु भावाणं सब्भावे उवएसण । भावेणं सद्दहंतस्स सम्मत्तं तं वियाहियं ।।
स्वयं ही अपने विवेक से अथवा किसी के उपदेश से सद्भुत तत्वों के अस्तित्व में आन्तरिक श्रद्धा, विश्वास करना सम्यक्त्व कहा गया है।
सम्यक दर्शन
जमोणं तं सम्म, जसम्मं तमहि होइ मोणं ति । निच्छयओ इयरस्स उ, सम्म सम्मत्तहेऊ वि ।।
निश्चय से जो मौन है वही सम्य ग्दर्शन है, और जो सम्यग्दर्शन है, वही मौन है। व्यवहार से जो निश्चय सम्यग्दर्शन के हेतु हैं, वे भी सम्यग्दर्शन हैं।
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