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तीर्थंकर पद - प्राप्ति ( तीर्थंकर नाम कर्म)
जैन कर्म साहित्य की दृष्टि तीर्थंकर पद - उत्कृष्ट - उत्तमोत्तम पुण्य प्रकृति है । कोई भी भव्य जीव, एक भव की साधना से तीर्थंकर नहीं बन सकता। उसके लिए दीर्घकाल तक भावपूर्ण साधना आराधना-उपासना करनी पड़ती है। तीर्थंकर भगवन्त की आत्मा भी कभी हमारी तरह इस संसार दलदल में लिप्त थी। जैनधर्म की यह निर्विरोध मान्यता है कि तीर्थंकरों का जीव भी एक दिन हमारी तरह ही वासना के दलदल में फँसा था, पापमय पंक से लिप्त था, कषायों की कालिमा से कलुषित था एवं आधि-व्याधि उपाधियों से संत्रस्त था । लेकिन स्वपुरुषार्थ के बल पर उसने सम्यक्त्व को प्राप्त किया एवं तदनन्तर भावपूर्ण सेवा - साधना से तीर्थंकर नाम - गोत्र कर्म का बंध किया व बहिरात्मा से परमात्मा की राह पकड़ स्वयं मोक्षोन्मुख बने ।
तीर्थंकर नाम कर्म की विशेष बात यह है कि इसका उपार्जन केवल मनुष्य गति में ही होता है। तिर्यंच गति में आत्मा को न तो इतना विवेक होता है, न ही इतना विनय एवं देवगति व नरकगति में वैक्रिय शरीर की अधमता के कारण दीर्घकालीन पुरुषार्थ नहीं हो सकता है; जितना मानव भव के औदारिक शरीर में ।
शुभकर्मों की 42 प्रकृतियों में तीर्थंकर प्रकृति सर्वोत्तम है । जो आत्मा इस सर्वोत्कृष्ट पुण्य प्रकृति का बंधकर इसे दृढ़ीभूत (निकाचित) कर लेती है वह अवश्य ही परमात्म पद पाती है। आवश्यक निर्युक्ति (गाथा 179-181 ) में तीर्थंकर नामकर्म बाँधने के 20 द्वार बताए हैं
“अरहन्त सिद्ध पवयण गुरु थेर बहुस्सुए तवस्सीसु । • वच्छल्लया यं तेसि, अभिक्ख णाणोवओगे य ॥ दंसण विणए आवस्सए य, सीलव्वए णिरइआरो । खण - लव-तव-च्चियाए, वेयावच्चे समाहिए । अपुव्वणाणग्गहणे सुयभत्ती पवयणे पभावणया । एएहिं कारणेहिं, तित्थयरत्तं लहई जीवो ॥ "
जब अन्धा अन्धे का मार्गदर्शक बनता है, तो वह अभीष्ट पथ से दूर भटक जाता है।
सूत्रकृताङ्ग (1/1/2/19)