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तीर्थंकर : एक अनुशीलन
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तीर्थंकरों की देशना इतनी मार्मिक होती है कि हजारों-लाखों मनुष्य संयम अंगीकार करते हैं। देवी-देवतागण मनुष्य योनि के लिए तरसते हैं क्योंकि वे भी दीक्षा लेकर आत्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर होने की इच्छा करते हैं।
केवलज्ञान प्राप्ति के बाद देवतागण जहाँ भी समवसरण रचते हैं, तीर्थंकर वहाँ प्रतिदिन दो बार धर्मदेशना देते हैं- एक प्रथम प्रहर में एवं दूसरी तृतीय पहर में तीर्थंकरों की धर्मदेशना विषयक राग एवं भाषा के विषय में सम्पूर्ण जैन वाङ्मय एकमत है कि1. तीर्थंकर मालकोश राग में देशना देते हैं। पत्थर को भी रुई बना दें, ऐसा पवित्र यह राग
होता है। मालकोश राग जिनसे बना है, ऐसे 6,400 रागों में प्रभु की देशना चलती है। तीर्थंकर अर्द्धमागधी भाषा में देशना देते हैं। आर्ष प्राकृत एवं मागधी भाषा के सम्मिश्रण से ही यह भाषा बनी है। प्राचीन काल में बचपन से अगर किसी को कोई भी भाषा न सिखाई जाए तो वह स्वयं ही अर्द्धमागाधी भाषा सीख जाता था। यह भाषा भाव की अपेक्षा शाश्वत है। अत: तीर्थंकर इसी भाषा में धर्मोपदेश देते हैं और जिसे जैसी भाषा आती है
वह अपनी-अपनी भाषा में देशना सुन-समझ लेता है। गणधर पद : एक पर्यवेक्षण
तीर्थंकरों के केवलज्ञान कल्याणक पर देवता उत्सव मनाते हैं व समवसरण की रचना करते हैं। तत्पश्चात् वे नन्दीश्वर द्वीप पर जाकर अट्ठाई महोत्सव करते हैं। लेकिन केवलज्ञान के पश्चात् एक नाम जो तीर्थंकर के साथ ही लिया जाता है वो है, गणधर का। गणधर पद जैन आम्नाय में अत्यंत विशिष्ट एवं गौरवशाली पद है।
'गणधर' शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है कि तीर्थंकरों के सन्निकट दीक्षित श्रमणों का समूह विशेष 'गण' कहलाता है। विशेषावश्यक भाष्य की वृत्ति में लिखा है- 'अनुत्तरज्ञानदर्शनादि गुणानां गणं धारयन्तीति गणधराः॥" आवश्यक चूर्णि में लिखा है- 'तित्थगरेहिं सयमणुन्नातं गणं धारेन्तीति गणहराः।" अर्थात् लोकोत्तर (उत्तम) ज्ञान, दर्शन आदि गुणों के गण (समूह) को अपनाने वाले तथा तीर्थंकर द्वारा अनुज्ञात धर्म-श्रमण गण को धारण करने वाले गणधर होते हैं।
गणधर साधु-साध्वीरूप संघ की मर्यादा, व्यवस्था एवं समाचारी के नियोजक, व्यवस्थापक होते हैं। तीर्थंकरों की अर्थरूप वाणी को श्रुत सूत्र रूप में संकलन वे ही करते हैं। वे चार ज्ञान के धारक तथा चौदह पूर्वो के ज्ञाता होते हैं।
| तप के द्वारा पूजा-प्रतिष्ठा की इच्छा नहीं करनी चाहिए।
- सूत्रकृताङ्ग (1/7/27) |