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तीर्थंकर : एक अनुशीलन
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25. अन्य मत - दर्शन पर अभिमान रखने वाले वादियों का भी भगवान के चरणों में आकर
वंदन करना। वाद के लिए आए हुए अन्यतीर्थी प्रतिवादी का निरुत्तर हो जाना। (तीर्थंकर के पच्चीस योजन अर्थात् 100 कोस के अन्दर निम्नलिखित आठ बातें) ईति,
चूहे, टिडे आदि जीवों से धान्यादि का उपद्रव न होना। 28. महामारी (हैजा, प्लेग आदि) उपद्रव का न होना।
स्वचक्र का भय (स्वराज्य की सेना से उपद्रव) नहीं होता।
परचक्र का भय (अन्य राज्य की सेना से उपद्रव) नहीं होता। 31. अतिवृष्टि (जरूरत से अधिक वर्षा) नहीं होती। 32. अनावृष्टि (कम वर्षा या वर्षा का अभाव) नहीं होती। 33. दुर्भिक्ष - दुष्काल नहीं पड़ता। 34. पूवोत्पन्न - उत्पात तथा व्याधियाँ - तत्काल शांत हो जाता है।
इस प्रकार तीर्थंकर 34 अतिशयों से सुशोभित होते हैं। इन 34 अतिशयों में से दो से पाँच तक, ये 4 अतिशय जन्म से होते हैं। इक्कीस से लेकर चौंतीस तक तथा भामंडल का अतिशय ये 15 अतिशय घाती कर्मों के क्षय होने पर केवलज्ञानभावी होते हैं। शेष अतिशय देवकृत होते
हैं।
वाणी के 35 गुण
तीर्थंकर देव कृत्कृत्य होने पर भी, तीर्थंकर नामकर्म के उदय से निरीह भाव से जगजीवों के कल्याण हेतु धर्मोपदेश देते हैं। श्री समवायांग सूत्र में लिखा है- ‘पणतीस सच्चवयणाइसेसा पण्णत्ता।' अर्थात् तीर्थंकर की वाणी सत्य वचन के अतिशयों से सम्पूर्ण परिपूर्ण होती है, जिसके 35 गुण होते हैं। समवायांग राजप्रश्नीय सूत्र, औपपातिक सूत्र आदि आगम ग्रन्थों की टीकाओं में निम्नलिखित 35 वचनातिशय प्राप्त होते हैं1. संस्कारवत्व - संस्कृत आदि लक्षणों से युक्त होना अर्थात् वाणी का भाषा की दृष्टि से
संस्कारयुक्त निर्दोष होना। 2. उदात्तत्व - उदात्त स्वर अर्थात् स्वर का ऊँचा बुलन्द होना, उच्च स्वभाव से एक योजन
तक पहुँचे इससे परिपूर्ण होना।
प्राणी किससे भय पाते हैं ? दुःख से। दुःख किसने किया है ? स्वयं आत्मा ने, अपनी ही भूल से।
- स्थानांग (3/2)