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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 148
नन्दीसूत्र नामक आगम में भावमंगलाचरण के रूप में तीर्थंकरों की स्तुति ही की है । चतुर्विघ संघ की स्तुति से पूर्व परमोपकारी तीर्थंकर महावीर की भावपूर्वक स्तुति की गई है। जयइ जगजीवजोणी, वियाणओ जगगुरु जगाणंदो । जगणाहो जगबन्धू जयइ जगप्पियामहो भयवं ॥ जयइ सुयाणं पभवो, तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ । जय गुरु लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो ॥
अर्थात् - जीवोत्पत्ति स्थान के ज्ञाता जगद्गुरु, भव्य जीवों के लिए आनंद प्रदाता, सम्पूर्ण
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जगत्
के नाथ, विश्वबन्धु, धर्मोपदेशक होने से जगत् के पितामह स्वरूप अरिहंत सदा जयवंत रहें । समस्त श्रुतज्ञान के मूल स्रोत, तीर्थंकरो में अन्तिम, तीनों लोकों के गुरु, ऐसे महावीर सदा जयवंत
रहे ।
स्तुति की तीन गाथाओं पर टीकाकार मलयगिरि ने लगभग डेढ़ हजार श्लोकों की विशाल टीका लिखी है।
प्राकृत साहित्य में तीर्थंकर स्तुति
1.
उवसग्गहरं स्तोत्र में आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने तीर्थंकर पार्श्वनाथ की भावविभोर स्तुति की है।
2.
उवसग्गहरं पासं पासं वंदामि कम्म घण मुक्कं । विसहर विस निन्नासं मंगल कल्लाण आवासं ॥
अर्थात् - उपसर्गों को दूर करने वाले, भक्तों के समीप रहने वाले, कर्म समूह से मुक्त बने हुए मिथ्यात्व आदि दोषों को दूर करने वाले मंगल और कल्याण के गृहरूप तेईसवें तीर्थंकर (पासं) पार्श्वनाथ जी को वंदन करता हूँ। स्तोत्र के प्रमुख 5 पद्य एवं कहीं-कहीं वृहद् रूप से 27 पद्य भी प्राप्त होते हैं।
अन्त में पार्श्वनाथ जी से भक्ति फल स्वरूप बोधि (सम्यक्त्व ) की याचना कर उन्हें ‘पास-जिणचंद’ चन्द्र की उपमा दी है। इस स्तोत्र में वैसे भी बहुत चामत्कारिक रहस्य छिपे हैं जो इसके गूढ रहस्यों को उद्घाटित करते हैं ।
जगचिन्तामणि स्तोत्र रचकर अष्टापद पर्वत पर श्री गौतम स्वामी ने सभी तीर्थंकरों को वन्दन किया। इसकी पहली गाथा में 24 जिनवरों की स्तुति की गई है। दूसरी गाथा में
यदि कोई वन में निवास करने मात्र से ज्ञानी और तपस्वी हो जाता है तो फिर सिंह, बाघ आदि भी ज्ञानी, तपस्वी हो सकते हैं। आचाराङ्ग-चूर्णि (1/7/1)
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