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तीर्थंकर : एक अनुशीलन : 150 प्राकृत साहित्य में ऐसे अनेक स्तोत्र प्राप्त होते हैं जिनमें तीर्थंकरों की स्तवना की गई है। प्रत्येक स्तोत्र की शब्द संरचना एवं भावों की प्रगाढता भिन्न है। कवि धनपाल कृत 'ऋषभपंचाशिका' अभयदेवसूरिजी कृत महावीर स्तोत्र', देवेन्द्रसूरिजी कृत 'आदिदेव-स्तवन', 'तिलकचन्द्रजी कृत 'द्वासप्ततिजिनस्तोत्र', आचार्य जिनप्रभजी कृत. 'पार्श्वनाथलघुस्तव', उपाध्याय मेरुनन्दनजी कृत 'सीमन्धर जिन स्तवन' आदि स्तोत्र भक्तियोग के अनन्य उदाहरण
अपभ्रंश भाषा में तीर्थंकर स्तुति
भारतीय इतिहास की मध्यकालीन भाषाओं में अपभ्रंश भाषा का विशिष्ट स्थान रहा है। इस भाषा में अनेक सरस कृतियाँ आज भी ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध हैं। कवि धनपाल कृत 'सत्त्यपुरीय महावीर उत्साह', जिनप्रभसूरिजी विरचित 'जिनजन्माभिषेक', 'मुनिसुव्रत स्तोत्रम्', शान्तिसमुद्रजी प्रणीत 'नवफनपार्श्वनाथनमस्कारः', वर्धमानसूरिजी कृत 'वीरजिनपारणकम्', 'जिनस्तुति', धर्मघोषसूरिजी कृत 'महावीर कलश' आदि विशेष रूप से उल्लिखित हैं। भाषा की सौम्यता एवं भक्तिवाद की मधुरता ऐसे स्तोत्रों में दृष्टिगोचर होती है। संस्कृत भाषा में तीर्थंकर स्तुति
आचार्य सिद्धसेन द्वारा तीर्थंकर स्तुति - जैन परम्परा के विद्वान आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने आह्लादजनक भाषा में तीर्थंकरों की स्तवना की है। बत्तीस पद्यों वाली अनेक द्वात्रिंशिकाएँ उन्होंने रची जिनमें अनेक तीर्थंकर स्तुति से सम्बन्ध रखती हैं। कल्याणमन्दिर स्तोत्र की भी 44 गाथाओं द्वारा श्री पार्श्वनाथ प्रभु का गुणोत्कीर्तन आचार्य सिद्धसेन ने किया है।
कल्याणमन्दिरमुदारमवद्यभेदि, भीताभयप्रदमनिन्दित मङियपद्मम्।
संसारसागर-निमज्जदशेषजन्तु-पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य॥ . इस प्रकार विविध अलंकारों, छंदों, रसों के प्रयोग से, भाषा के सरस उपयोग से श्री पार्श्वनाथ जी की भक्ति की है। आचार्य मानतुंग द्वारा तीर्थंकर स्तुति - छठी शताब्दी के उत्तरकाल में हुए आचार्य मानतुंग सूरि जी द्वारा रचित आदिनाथ स्तोत्र (भक्तामर स्तोत्र) आज भी अत्यन्त प्रसिद्ध है जिसमें प्रथम तीर्थंकर युगादिदेव को परिलक्षित करके तीर्थंकरों की गुण स्तुति की है। राजा भोज के कारागृह में रचे इस स्तोत्र में भक्तिरस का अपूर्व आनन्द है।
चार प्रकार के पुरुष हैं- कुछ पुरुष वेष छोड़ देते हैं, किन्तु धर्म नहीं छोड़ते। कुष्ठ धर्म छोड़ देते हैं, किन्तु वेष नहीं छोड़ते हैं। कुछ वेष भी छोड़ देते हैं और धर्म भी। कुछ ऐसे होते हैं जो न वेष छोड़ते हैं और न धर्म।
- व्यवहारसूत्र (10)