Book Title: Tirthankar Ek Anushilan
Author(s): Purnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publisher: Purnapragnashreeji, Himanshu Jain

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Page 249
________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 228 पुष्करार्ध द्वीप के पूर्व ऐरावत क्षेत्र की त्रिकाल चौबीसी क्र.सं. भूत काल वर्तमान काल भविष्य काल | श्री कृतान्त श्री निशामित (शंकर) | श्री जशोधर | श्री उपदिष्ट (ओबरिक) श्री अक्षपास श्री सुव्रत (सुकृत) | श्री देवादित्य श्री अचितकर श्री अभयघोष श्री अष्टनिधि श्री नयादि श्री निर्वाणिक श्री प्रचंड श्री पर्णपंडु श्री व्रतवसु श्री वेणुक श्री स्वर्ण (स्वप्न) श्री अतिराज (रविराज) श्री त्रिभानु श्री तपोनाथ श्री विश्व (अश्व) . श्री ब्रह्मादि श्री पुष्पकेतु श्री अर्जुन श्री वजंग श्री धार्मिक श्री तपचन्द्र श्री विरोहित (अविरोध) श्री चंद्रकेतु श्री शारीरिक श्री अपाप श्री प्रहारित श्री महसेन श्री लोकोत्तर श्री वीतराग श्री सुग्रीव श्री जलधि श्री उद्योत श्री दृढ हप्रार श्री विद्योतन श्री तपोधिक श्री वृषातीत श्री सुमेरु श्री अतीत (मधु) श्री अंबरीक श्री सुभाषित (प्रभादित्य) श्री मरुदेव श्री तुंबर | श्री वत्सल श्री दयामय (दामिक) | श्री सर्वशील श्री जिनालय श्री शिलादित्य (शीतल) | श्री प्रतिराज श्री तुषार श्री स्वस्तिक श्री जितेन्द्रिय श्री भुवनस्वामी श्री विश्वनाथ श्री तपादि | श्री सुकुमार श्री शतक श्री रत्नाकर (रत्नकिरण) | श्री देवाधिदेव श्री सहस्तादि (नंदन) श्री देवेश 23. श्री आकाशिक श्री तमोकित श्री लांछन 24. श्री अंबिक श्री ब्रह्मधर श्री प्रवेश वक्त बड़ा ही भयंकर है और इधर प्रतिपल जीर्ण-शीर्ण होती हुई काया है। इसलिए साधक को सदैव अप्रमत्त होकर भारण्ड पक्षी के समान अप्रतिबध्द होकर विचरण करना चाहिए। - उत्तराध्ययन (4/6)

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