Book Title: Tirthankar Ek Anushilan
Author(s): Purnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publisher: Purnapragnashreeji, Himanshu Jain

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Page 189
________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 168 पृथ्व्या देव्यास्तदा स्वप्ने, दृष्टं ताद्गमहोरगम्। शक्रो विचक्रे भगवन्मूर्ध्निछत्रमिवाऽपरम् ॥ तदादिचाऽभूत्समवसरणेष्व परेष्वपि। नाग एकफणः पञ्चफणो-नवफणोऽथ वा॥ भावार्थ : सुपार्श्वनाथ प्रभु की माता पृथ्वी ने (जब प्रभु गर्भ में थे), तब बढते गर्भ के प्रभाव से स्वप्न में स्वयं को एक फण, पांच फण एवं नव फणो वाली नागशय्या पर सोते हुए देखा। जब सुपार्श्वनाथ प्रभु को केवलज्ञान प्राप्त हुआ, तब माँ ने स्वप्न में जैसा सर्प देखा था, वैसा ही सर्प इन्द्र ने प्रभु के मस्तक पर निर्मित किया। यह अद्वितीय छत्र सा प्रतीत होता था। उसी समय से प्रभु के अन्य समवसरणों में 1, 5 व 9 फणों से युक्त सर्प स्थापित होने लगे। इसी प्रकार, जब कमठासुर (मेघमाली देव) प्रभु पार्श्व को उपसर्ग दे रहा था, तब धरणेन्द्र नागराज ने पूर्वभव का चिंतन करते हुए एवं उपकार का स्मरण करते हुए प्रभु की रक्षा हेतु सर्प का रूप बनाया एवं फणों द्वारा प्रभु की नासिका तक आए पानी से रक्षा की; इत्यादि। वर्तमान समय में प्राप्त प्राचीन प्रतिमाओं में स्वतंत्र मूर्तियों में सुपार्श्वनाथ जी की प्रतिमा या तो बिना सर्पफणछत्र के है अथवा पाँच सर्पफणों से युक्त है। एक या नौ सर्पफणों के छत्रों वाली स्वतंत्र प्रतिमाएँ नहीं मिली हैं। पर दिगम्बर स्थलों की कुछ जिनमूर्तियों के परिकर में 1, 9 सर्पफणों के छत्रों वाली सुपार्श्वनाथ जी की लघु मूर्तियाँ अवश्य उत्कीर्ण हैं। कुंभारिया, बडौदा, शहडोल, मथुरा, देवगढ, खजुराहो आदि स्थलों पर फणों की लाक्षणिक विशिष्टता वाली सुपार्श्वनाथ जी की अति प्राचीन प्रतिमाएँ मिलती हैं। पार्श्वनाथ जी के मस्तक पर सर्पफणों के छत्र का सदैव ही प्रदर्शन किया गया है। चौसा, मथुरा, अकोटा, रोहतक, सिरोही आदि अनेकस्थलों पर पार्श्वनाथ जी की फणयुक्त प्रतिमाएँ प्राप्त होती हैं। ज्ञातव्य है कि पूर्वकाल में फणों का उत्कीर्तन मूलतः परिकर में होता था जो शनैः शनैः प्रतिमाजी के अंगरूप में जुड़ गया। तीर्थंकर के लांछण (चिह्न) का रहस्य इस सन्दर्भ में लांछण शब्द का अर्थ है- लक्षण/ चिह्न/ जैन वाङ्मय में इसी हेतु से 'मषतिलकादिके चिह्ने' तथा 'लछण अंको चिह्न' इत्यादि शब्द प्रयुक्त हुए हैं। ये लांछण (चिह्न) तीर्थंकर परमात्मा के शरीर पर प्राप्त होते हैं। अभिधान चिन्तामणि ग्रंथ की स्वोपज्ञ टीका में आचार्य हेमचन्द्र जहाज चलाने वाला नियमिक तो ज्ञान है, पवन की जगह ध्यान है और चारित्र जहाज है। इस ज्ञान, ध्यान, चारित्र तीनों के मेल से भव्य जीव संसार-समुद्र से पार हो जाते हैं। - मूलाचार (898)

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