Book Title: Tirthankar Ek Anushilan
Author(s): Purnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publisher: Purnapragnashreeji, Himanshu Jain

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Page 192
________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 171 को बुलाने उसके पीछे-पीछे आया । किन्तु अंबिका ने समझा कि वह उसे मारने आया है । अत्यंत भय से वह नेमिनाथ प्रभु का स्मरण करते हुए दोनों बालकों को साथ लेकर कूए में कूद गई और मरकर व्यंतर निकाय की देवी तथा नेमिनाथ जी की अधिष्ठायक देवी बनी। निर्वाणकलिका, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, प्रवचन - सारोद्धार, पद्मानंदमहाकाव्य, आचारदिनकर, देवतामूर्तिप्रकरण, मंत्राधिराजकल्प इत्यादि ग्रंथों में शासनरक्षक यक्ष-यक्षिणी जी के नाम, लक्षण इत्यादि का उल्लेख है। प्राचीन परम्परा में यक्ष एवं यक्षिणी तीर्थंकर की प्रतिमाओं के सिंहासन या सामान्य पीठिका के क्रमशः दायीं और बायीं ओर अंकित किए जाते थे। प्रतिष्ठासारोद्धार में भी लिखा है। "यक्षं च दक्षिणे पार्श्वे वामे शासनदेवता ।” किन्तु वर्तमान में यक्ष-यक्षिणी की प्रतिमाओं का स्वतंत्र अस्तित्व लगभग 9वीं 10 वीं शताब्दी के पश्चात् से ही प्रचलित हुआ है। स्वतंत्र मूर्तियों में यक्ष यक्षिणी के मस्तक पर छोटी जिन प्रतिमा उत्कीर्ण करने का भी प्रचलन रहा है। जैन परम्परा में वीतराग तीर्थंकर की प्रतिमा ध्यान का एक श्रेष्ठ आलम्बन है। मंत्रों व भावो की ऊर्जा से मण्डित तीर्थंकर की स्थापना निक्षेप हमें जिनदर्शन से निजदर्शन की ओर अग्रसर करती है। जिनपूजा अष्टकर्मों के निवारण का एवं सकारात्मकता का वैज्ञानिक आधार है अतः परमात्मा से तादात्म्य जोडने हेतु प्रतिमा में परमात्म दर्शन परमात्म पूजन अद्वितीय साधन है। जिज्ञासा - वर्तमान समय में श्वेताम्बर व दिगम्बर परम्परा में जिनप्रतिमाओं का लाक्षणिक स्वरूप भिन्न है । पूर्वकाल में भी यही स्थिति थी ? समाधान जैन परम्परा में अति प्राचीन काल से ही जिनमूर्ति जिनप्रतिमाओं के निर्माण व पूजन की परम्परा रही है। वर्तमान समय में श्वेताम्बर परंपरा में मान्य तीर्थंकरों की देवदूष्य वस्त्र युक्त नेत्रयुक्त प्रतिमाएँ प्रचलित हैं एवं दिगंबर परंपरा में मान्य पूर्ण अचेल ध्यानमग्न प्रतिमाएँ प्रचलित हैं। प्राचीन काल की प्रतिमाओं में दोनों प्रकार की प्रतिमाओं के अवशेष प्राप्त होते हैं । किन्तु यह एक समीक्षात्मक सत्य है कि श्वेताम्बर परम्परा भी पूर्वकाल में दिगंबर प्रतिमाओं को मान्य रखती थी । अर्थात् पहले एक प्रतिमा केवल प्रतिमा होती थी एवं उसमें श्वेताम्बर दिगम्बर का भेद नहीं था। आज जो प्राचीन प्रतिमाएँ खुदाई आदि से भी प्राप्त होती हैं, वे किसी परम्परा विशेष से संबंधित हैं, ऐसा कथन अनुचित होगा। प्रतिमाओं में जो आज भेद दृष्टिगोचर होता है, वह द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव से तथा गीतार्थ जैनाचार्यों की दूरदर्शिता से प्रभावित है, ऐसा अनेक विद्वानों का मानना है । - राग-द्वेष से प्रमत्त बना जीव इन्द्रियाधीन होकर निरन्तर कर्म-बन्धन करता रहता है। मरणसमाधि (612) -

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