________________
तीर्थंकर : एक अनुशीलन 133
मानवों ने अंधकार मिटाने हेतु दीपक जलाए। इस प्रकार दीपमालिका दिवाली अथवा दीपावली का पुनीत पर्व प्रारंभ हुआ ।
निर्वाणे स्वामिनि ज्ञानदीपके द्रव्यदीपकान् । तदाप्रभृति लोकेऽपि पर्वदीपोत्सवाभिधम् ॥
तीर्थंकरों का शासन
निर्वाण के पश्चात् तीर्थंकरों का शासन नियमित रूप से चलता है। उनकी आज्ञा के अनुरूप चलने वाले साधु-साध्वी भगवन्त उनकी शासन - परम्परा का वहन करते हैं। कहा गया है- 'तित्थयर समो सूरि” अर्थात्आचार्य भगवन्त तीर्थंकरों के समान होते हैं। सम्पूर्ण चतुर्विध संघ में तीर्थंकर पद प्राप्त करने की योग्यता होती है, इसीलिए ऐसे तारक तीर्थ को पच्चीसवें तीर्थंकर की उपमा दी गई
है।
तीर्थंकर के अभाव में उनके परिनिर्वाण के पश्चात् चतुर्विध संघ ही उनकी परम्परा संभालता है। तीर्थंकरों का शासन कभी विच्छेद नहीं होता । किन्तु वर्तमान अवसर्पिणी में यह एक आश्चर्य हुआ अर्थात् सुविधिनाथ जी से लेकर धर्मनाथ जी तक, जिनशासन का अभाव रहा एवं असंयति की पूजा हुई जो एक अच्छेरा (आश्चर्य) है।
दो प्रकार की मोक्ष मर्यादा
प्रत्येक तीर्थंकर के दो प्रकार की अन्तकृत भूमि यानी मुक्तिमार्ग की मर्यादा होती है। भव अर्थात् संसार । इसका अन्त करने की भूमिका अथवा कर्मों का अन्त करने की मर्यादा अन्तकृत भूमि है। ऐसी मोक्षमर्यादा दो प्रकार की है
1. युगान्तकृत भूमि - युग यानी कालमान विशेष । अनुक्रम से गुरु, शिष्य - प्रशिष्यादिरूप भव्यात्माओं के अनुसार कालमान जानना । तीर्थंकर से लेकर उनकी कितनी पाट तक के काल तक जीवों ने कर्म खपाए, यह युगान्तकृत भूमि है।
2. पर्यायान्तकृत भूमि- तीर्थंकरों के केवलज्ञान होने के कितने समय बाद कोई व्यक्ति मोक्ष गया यह पर्यायान्तकृत भूमि है। अर्थात् उनके कितना केवली पर्याय होने पर किसी जीव के कर्मों का अन्त हुआ या वो मोक्ष गया ।
हे सुविहित ! यदि तू घोर भवसमुद्र के पार तट पर जाना चाहता है, तो शीघ्र ही तप-संयम रूपी नौका को ग्रहण कर ।
मरण- समाधि (202)