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निर्वाण (मोक्षगमन) कल्याणक
जब तीर्थंकर परमात्मा समस्त कर्मों का नाश कर देते हैं, तब वे परम पद-मोक्ष की ओर आरूढ होते हैं। उनके शरीर का त्याग कर उनकी आत्मा सिद्धशिला की ओर अग्रसर होती है। सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा से आत्मा परमात्मा बन जाती है, उसे निर्वाण कहा गया है।
उत्तराध्ययन सूत्र की टीका में कहा गया है- “निर्वान्ति-कर्मानलविध्यापनाच्छीतीभवन्त्यस्मिन् जन्तव इति निर्वाणम् । ” जहाँ कर्मरूपी अग्नि के बुझ जाने से जीव शीतल / शांत होते हैं एवं आत्मा शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेती है, वह निर्वाण है। मोक्ष, निर्वाण, परिनिर्वाण, सिद्धि इत्यादि शब्द समानार्थक हैं।
अष्ट कर्मों का नाश होते ही तीर्थंकर सदा-सदा के लिए संसार को त्याग देते हैं। उनकी आत्मा में निम्न 8 गुण उपस्थित हो जाते हैं।
1. अनन्त ज्ञान ( ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से )
2.
अनन्त दर्शन ( दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से )
3. अव्याबाध सुख ( वेदनीय कर्म के क्षय से )
4. क्षायिक समकित एवं अनन्त चारित्र ( मोहनीय कर्म के क्षय से )
5. अक्षयस्थिति (आयुष्य कर्म के क्षय से)
6. अरूपीपन ( नाम कर्म के क्षय से)
7. अगुरुलघुत्व ( गोत्र कर्म के क्षय से)
8. अनन्त शक्ति ( अंतराय कर्म के क्षय से )
ज्ञानावरणीय आदि प्रत्येक कर्म की प्रकृतियों को भिन्न-भिन्न गिनने से तीर्थंकर सिद्ध के 31 गुण भी होते हैं।
'अभयदान' सब दानों में श्रेष्ठ है।
प्रश्नव्याकरण (2/4)