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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 3 113
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शोक - इष्ट व मनोज्ञ वस्तु के वियोग की पीडा ‘शोक' होती है। तीर्थंकर के लिए कुछ इष्ट ही नहीं है, अत: वे शोकरहित होते हैं। भय - तीर्थंकर अत्यंत बलशाली होते हैं- शारीरिक व मानसिक (आत्मिक) रूप से। वे किसी भी प्रकार के भय से तिर्यंच, धन, आजीविका, मृत्यु आदि सभी डर से निवृत्त होते
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हैं।
10. क्रोध - तीर्थंकर परमात्मा क्षमाशूर-क्षमासागर होते हैं। वे किसी के निंदनीय अप्रीतिकर कृत्य
पर क्रोधित नहीं होते। मोहनीय कर्म के क्षय के कारण कषाय उन्हें स्पर्श भी नहीं कर पाते। 11. मान - अपने वैभव, शौर्य, विभूति का अहंकार करना मान है। अभिमान मिथ्यात्व का
परिचायक है लेकिन दृढ सम्यक्त्वी होने से तीर्थंकरों में मान कषाय नहीं होता। 12. माया - तीर्थंकर परमात्मा सरलता की प्रतिमूर्ति होते हैं। किसी भी प्रकार का छल, कपट,
उपाधि, निकृति आदि से वे रहित होते हैं। उन्होंने मोहनीयकर्म क्षय किया व उन्हें किसी
भी कारण से माया करने की जरूरत नहीं होती। 13. लोभ - तीर्थंकर सन्तोष सागर में रमण करते हैं। कोई भी इच्छा आकांक्षा या तृष्णा उन्हें ___ . स्पर्श भी नहीं कर पाती। वे समस्त ऋद्धियों का परित्याग करते हैं व उनकी इच्छा भी
नहीं करते। 14. मद - अपने गुणों पर गर्व करना मद है। मद वही होता है जहाँ अपूर्णता होती है। तीर्थंकर
सर्वगुणसम्पन्न होते हैं। अतः वे मद से सर्वथा रहित होते हैं। 15. मत्सरता - दूसरों में किसी वस्तु या गुण की अधिकता देखने से होने वाली ईर्ष्या को
मत्सरता कहते हैं। तीर्थंकर तो स्वयं सर्वगुण सम्पन्न होते हैं। अतः वे कभी भी ईर्ष्याभाव धारण नहीं करते। अज्ञान - ज्ञान न होने का कारण ज्ञानावरणीय कर्म है तथा विपरीत ज्ञान की उपस्थिति होना मोहनीय कर्म का सूचक है। तीर्थंकर केवलज्ञानी होते हैं, कर्मों से रहित होते हैं। अतः
उनके वचन परम ग्राह्य होते हैं। 17. निद्रा - दर्शनावरणीय कर्म के क्षय होने से तीर्थंकर केवली-अवस्था में क्षण भर की भी
निद्रा नहीं लेते। वे सदैव निरंतर जागृत रहते हैं। 18. प्रेम (मोह) - तीर्थंकर में तन, स्वजन तथा धनादि सम्बंधी स्नेह या राग नहीं होता। वे
वंदक और निंदक में समभाव रखते हैं। अतः वे इस दोष से भी मुक्त होते हैं। मानव! तू स्वयं ही अपना मित्र है। तू बाहर में क्यों किसी सखा की खोज कर रहा है?
- आचाराङ्ग (1/3/3) )