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गणधर नाम-कर्म
गणधर नामकर्म नामकर्म की अनन्त प्रकृतियों का एक भेद है। तीर्थंकर के बाद जो सर्वाधिक पूजनीय पद आता है, वह है गणधर का । यह स्पष्ट है कि जैनधर्म कर्मवाद का पूर्ण समर्थन करता है एवं गणधर पद की प्राप्ति हेतु भी विशिष्टतम - उच्चतम साधना करनी पड़ती है। शुभ अध्यवसायों के योग से गणधर लब्धि उत्पन्न होती है। नामकर्म तो सभी गणधरों को समान होता है किन्तु लब्धि में अंतर होता है । यथा प्रथम गणधर एवं तीर्थंकर की परम्परा का वहन करने वाले गणधर की लब्धि अन्य से अधिक होती है। शास्त्रों में फरमाया गया है
तीर्थंकर : एक अनुशीलन 103
चिन्तयत्येवमेवैतत् स्वजनादिगतं तु यः ।
तथाऽनुष्ठानतः सो पिं, धीमान् गणधरो भवेत् ॥"
अर्थात् जो प्रशस्त बुद्धिमान आत्मा स्वयं के स्वजन - परिजन - मित्र आदि के लिए भव से
तिरने की चिन्ता करे तथा तदनुरूप परोपकार रूप अनुष्ठान या सेवा करे, उन्हें धर्मरथ पर आरूढ़ करे, वह महामहिमावान गणधर पद प्राप्त करती है। गुजरात के सम्राट कुमारपाल ने इसी भाव से गणधर नामकर्म का बंध किया व वे आगामी चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर महापद्म जी के गणधर
बनेंगे।
2.
गणधरों द्वारा श्रुत-रचना
गणधर तीर्थंकरों की अर्थपूर्ण वाणी को सूत्र रूप में गूँथते हैं। कहा गया है- अत्थं भासई अरहा सुत्तं गुफइ गणहरा निउणा । प्रथम देशना में तीर्थंकर परमात्मा उन्हें तीन पदों का ज्ञान देते हैं, जो समस्त ज्ञान का सार होता है। और उसी के आधार पर गणधर वाचना तैयार करते हैं । वैज्ञानिक रूप से भी यह त्रिपदी जगत का आधार है। गणधर भगवंत प्रभु से प्रश्न करते हैंभंते ! किम् तत्तम् ? तब प्रभु उत्तर रूप में जो त्रिपदी प्रदान करते हैं, वह इस प्रकार है
1.
उपन्नेइ वा (उत्पाद) - "स्वजात्यपरित्यागेन भावान्तरावाप्तिरुत्पाद: ।" अर्थात् सब उत्पन्न होता है। किसी द्रव्य द्वारा अपने मूल स्वरूप का परित्याग किए बिना दूसरे रूपान्तर का ग्रहण कर लेना उस द्रव्य का उत्पाद स्वभाव कहा जाता है। जैसे स्वर्णपिंड को गलाकर कंकण का निर्माण करना, कंकण का 'उत्पाद स्वभाव' है।
विगमेइ वा (व्यय) “तथा पूर्वभावविगमो व्ययः ।" अर्थात् सब नष्ट होता है। किसी द्रव्य द्वारा रूपान्तर करते समय पूर्वभाव का परित्याग करना द्रव्य का व्यय स्वभाव कहा जाता है। जैसे स्वर्णपिंड को गला कर कंकण का निर्माण करना स्वर्णपिंड का व्यय स्वभाव है।
'आज नहीं मिला है तो क्या है, कल मिल जायेगा' - जो यह विचार कर लेता है, वह कभी अलाभ के कारण पीड़ित नहीं होता।
उत्तराध्ययन (2/31)
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