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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 28
10. विनय पद - आत्मा का मूलभूत गुण विनय है। आत्मा में नम्रता के बीज बोने का अर्थ
है मुमुक्षु औसन्य आसन्न भव्य जीव उत्पन्न करना। कहा गया है- 'लघुता से प्रभुता मिले।' आत्मा में से अहंकार आदि कषायों को निकालने से कर्मरूपी मल का विनाश होता है और विनय नामक आन्तरिक गुण की उत्पत्ति होती है। आत्मा के प्रदेश-प्रदेश में 10 प्रकार के/52 प्रकार के विनय समाहित करने से आत्मा तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करती है। आवश्यक पद (चारित्र पद) - आत्मा का परम लक्ष्य विकृति से प्रकृति की ओर आना है। इसी हेतु से शुद्ध-निर्मल चारित्र का पालन जरूरी है। सामायिक, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग
आदि षट् आवश्यक क्रिया के अतिचार रहित, दोष रहित, निर्दोष क्रिया के पालन से आत्मा कलंकहीन बनती है। चारित्रिक उपासना हेतु षड़ावश्यक के भावपूर्वक करने से तीर्थंकर नामकर्म का बंध आत्मा करती है एवं सद्गति की ओर प्रयाण करती है। ब्रह्मचर्य पद (शील पद) - ब्रह्म अर्थात् आत्मा चर्य अर्थात् रमण करना। स्वयं को आत्मा के सन्निकट रखना, आत्मभाव में लीन रहना ही ब्रह्मचर्य कहलाता है। जो व्यक्ति भोगकामवासना के विकारों का विचार नहीं करते, शील तथा व्रत अर्थात् मूलगुण और उत्तरगुण को निर्दोष पालते हैं व ब्रह्मचारी रहते हैं, उनके शरीर की विशिष्ट ऊर्जा धर्माराधना में सहायक होती है। ब्रह्मचर्य व्रत के भावपूर्ण पालन से तीर्थंकर नाम कर्म बंधता है। . शुभ ध्यान पद (क्रिया पद) - आत्मा को रौद्र आदि कषायी ध्यान से विकेन्द्रित हो संवेग भावना उत्पन्न करने हेतु धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान ध्याना चाहिए। इससे प्रतिक्षण वैराग्य भाव की अभिवृद्धि होती है एवं कर्मरूपी कचरा भस्म होता है। व्यक्ति जब निर्जरा हेतु शुभ ध्यान ध्याता है, तो पंचाचार विशुद्ध क्रिया भी निर्दोष एवं अतिचार रहित होती है। भावपूर्वक शुभ ध्यान में निर्मल क्रियाओं के करने से भी भव-भवान्तर में तीर्थंकरत्व की प्राप्ति होती
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शुभ
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तप पद - जो कर्मों की मैल को तपाता है, उसे तप कहते हैं। बाह्य तप (अनशन, वृत्तिसंक्षेप, ऊणोदरी इत्यादि) तथा आभ्यंतर तप (प्रायश्चित्त वैयावच्च इत्यादि) के यथाशक्ति तपानुष्ठान से आत्मा की शुद्धि होती है। प्रशस्त-निष्काम एवं सम्यक्तप से सभी दुर्भाव संकुचित हो जाते हैं। तथा आत्मा मोक्ष की ओर बढ़ जाती है। तप का माहात्म्य अद्भुत कल्याणकारी है एवं इस पद के पूर्ण आराधन से भव्यात्माएँ आगामी भवों में तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकती हैं।
काम-भोगों में आसक्त एवं अपने हित तथा नि:श्रेयस् की बुब्दि का त्याग करने वाले अज्ञानी मानव विषय-भोग में वैसे ही चिपके रहते हैं, जैसे श्लेष्म (कफ) में मक्खी।
- उत्तराध्ययन (8/5)