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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88 55
तदनन्तर अन्य तीर्थंकरों की भांति दीक्षा कल्याणक, केवलज्ञान कल्याणक तथा मोक्षकल्याणक का वर्णन है। तीर्थंकरों के जन्म-अतिशय
तीर्थंकर प्रभु जन्म से ही अतिशयवन्त होते हैं। यह उनके पूर्वसंचित कर्मों का ही प्रभाव होता है। यूँ तो जन्म के 4 अतिशय गिनाए गए हैं, किन्तु ये जघन्य संख्या से हैं। यथा1. अवट्ठिए केसमंसुरोमनहे - मस्तक आदि समस्त शरीर के बालों-रोम, नाखून तथा श्मश्रु
का अवस्थित मर्यादित रहना। 2. निरामया निरुवलेवा गायलट्ठी - देह का रोगरहित, व्याधिमुक्त, मलरहित, प्रस्वेद रहित
निर्मल होना। पउमुप्पलगंधिए उस्सास निस्सासे - श्वासोच्छ्वास का पद्म (उत्पल) कमल की तरह
निर्मल व सुगंधित रहना। 4. पच्छन्ने आहारनीहारे अदिस्से मंसचक्खुणा - अवधिज्ञानी के अलावा सामान्य लोगों के
चर्मचक्षुओं के लिए प्रभु का आहार, नीहार अदृश्य होना।
किन्तु इनके अलावा भी अनेक अतिशय होते हैं। जैसे उत्तमोत्तम संहनन, संस्थान, रूपवान, शरीर, अमित बल, अनेक लक्षण इत्यादि। पूर्वाचार्यों का ऐसा भी वचन है कि तीर्थंकर जन्मोपरांत भी माता का स्तनपान नहीं करते। चूंकि जन्म कल्याणक के समय इन्द्र उनके अंगूठे पर अमृत के लेप का संचार कर देता है, तीर्थंकर उसी को चूसकर पोषण ग्रहण करते हैं। हालांकि क्षीरधात्री (तीर्थंकर को दूध पिलाने के लिए) इन्द्र नियुक्त करता है, किन्तु वह केवल वात्सल्य एवं सेवा के निमित्त से जीताचार होता है। ___ तीर्थंकर जन्म से ही 3 ज्ञान - मतिज्ञान (आभिनिबोधिक ज्ञान), श्रुत ज्ञान एवं अवधिज्ञान के धारक होते हैं, जो एक विशेष अतिशय है, किन्तु वे कभी इस अवधि ज्ञान का प्रयोग नहीं करते। क्योंकि वे गृहस्थावस्था में धर्म का प्रतिपादन स्वयं नहीं करते हैं। तीर्थंकरों का बाल्यकाल
अपने बाल्यकाल में तीर्थंकर सरलता की प्रतिमूर्ति होते हैं। वे शुक्ल पक्ष की शशिकलाओं की भाँति निर्मल रूप से बढते हैं। प्रभु की सेवा में पाँच धायमाताएँ रहती हैं
काणे को काणा, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर कहना यद्यपि सत्य है, तथापि ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इससे इन व्यक्तियों को दुःख पहुँचता है।
- दशवैकालिक (7/12)