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तीर्थंकर : एक अनुशीलन
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54. वूहं - व्यूह रचने की कला। 55. पडिवूहं – प्रतिव्यूह रचने की कला (व्यूह के सामने उसे पराजित करने वाले व्यूह
की रचना) 56. खंधावारमाणं - सेना के पड़ाव का प्रमाण जानना। 57. नगरमाणं - नगर का प्रमाण जानने की कला।
वत्थुमाणं - वस्तु का प्रमाण जानने की कला। 59. खंधावारनिवेसं - सेना का पड़ाव आदि कहाँ डालना इत्यादि का परिज्ञान। 60. वत्थुनिवेसं - प्रत्येक वस्तु के स्थापन कराने की कला। 61. नगरनिवेसं - नगर निर्माण का ज्ञान। 62. ईसत्थं - ईषत् को महत् करने की कला।
छरुप्पवायं – तलवार आदि की मूठ आदि बनाने की कला।
आससिक्खं - अश्व-शिक्षा। 65. हत्थिसिक्खं - हस्ती-शिक्षा।
धणुवेय - धनुर्वेद। हिरण्णपागं, सुवण्णपागं, मणिपागं, धातुपागं -
हिरण्यपाक, सुवर्णपाक, मणिपाक, धातुपाक बनाने की कला। 68. बाहुजुद्धं, दंडजुद्धं, मुट्ठिजुद्धं, अट्ठिजुद्धं, जुद्धं, निजुद्धं, जुद्धाइजुद्धं -
बाहु युद्ध, दण्ड युद्ध, मुष्टि युद्ध, यष्टि युद्ध, युद्ध, नियुद्ध, युद्धातियुद्ध करने की कला। सुत्ताखेडं, नालियाखेडं, वट्टखेडं, धम्मखेडं, चम्मखेडं – सूत बनाने की, नली बनाने
की, गेंद खेलने की, वस्तु के स्वभाव जानने की, चमड़ा बनाने आदि की कलाएँ। 70. पत्तच्छेज्ज-कडंगच्छेज्जं – पत्र-छेदन, वृक्षाङ्गविशेष छेदने की कला। 71. सजीवं, निज्जीवं – संजीवन, निर्जीवन। 72. सउणरुयं – पक्षी के शब्द से शुभाशुभ जानने की कला।
66.
हे गौतम ! जिस समय इस जीव में वीरता का सञ्चार होता है तो यह जीव जन्म-जन्मान्तर में किये पार्यों को एक मुहूर्त-भर में धो डालता है।
- गच्छाचार-प्रकीर्णक (6)