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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 896
4. चामर
केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थंकर त्रिलोक- त्रिकाल - ज्ञानी हो गए हैं। उनकी सेवा स्वरूप देवतागण चामर बींझते हैं। चामर में रहे हुए बाल बहुत श्वेत एवं तेजस्वी होते हैं । दिगम्बर परम्परा में चामर की संख्या 64 बताई गई है।
5. सिंहासन
तीर्थंकर की आत्मा लोक में सर्वश्रेष्ठ है। इसी हेतु से देवता प्रभु को विराजमान करने के हेतु से रत्नजड़ित मणिमय स्वर्ण सिंहासन का निर्माण करते हैं। अशोक वृक्ष के मूल में चार दिशाओं में सिंहासन होता है। पैर भी सुखपूर्वक रख सके, ऐसा पादपीठयुक्त होता है। 6. भामंडल देवतागण भगवान के मस्तक के पीछे तेज का मांडला रचते हैं। वह प्रभु के बुद्धिबल आत्मबल के सूर्यरूप रहता है जो प्रभु के तेज को निखारता है। वह दसों दिशाओं को प्रकाशित करता है।
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7. देवदुंदुभि - देवता दुन्दुभि नामक वाद्य - वार्जित्र बजाते हैं जिसमें से “हे भव्य जीवो! शिवपुर के सारथी तुल्य इस पथप्रदर्शक प्रभु की सेवा-शुश्रूषा करो" ऐसा स्वर निकलता है। इसे थेरि और महाढक भी कहते हैं । परमात्मा के धर्मचक्रवर्ती होने को यह सूचित करता है।
8. छत्रत्रय - हीरे, मणि से विभूषित त्रण छत्र ( आतपत्र ) की रचना प्रभु के मस्तक के ऊपर देवता करते हैं। ये छत्र तीन लोकों के साम्राज्य को सूचित करते हैं।
समवसरण ये सभी प्रातिहार्य होते हैं। जब प्रभु विहार करते हैं तो 5 प्रातिहार्य ही रहते हैं दिव्यध्वनि, चामर, भामंडल, दुंदुभि एवं छत्रत्रय।
इसके अलावा भी कई अतिशय केवलज्ञान होते ही तीर्थंकर को उत्पन्न होते हैं। एक विशेष कि वे पृथ्वी का स्पर्श नहीं करते। देवता नवकमल की रचना करते हैं। दो आगे कमल और शेष सात पीछे। जैसे प्रभु एक कदम बढ़ाते हैं, वैसे ही पीछे वाला कमल स्वयमेव देवर्द्धि से आगे आ जाता है। आवश्यक चूर्णि अनुसार आगे तीन कमल, पीछे तीन कमल एवं एक पर प्रभु का चरण, ये 7 पद्मकमल भी संभव हैं।
तीर्थंकर का नाम : यह तीर्थंकर नाम तभी सार्थक होता है, जब वे तीर्थ की रचना करते हैं । केवलज्ञान पश्चात् ही वे समवसरण में देशना देते हैं । समवसरण क्या होता है, कैसा होता है एवं तीर्थ की स्थापना किस प्रकार होती है ? अब जानते हैं
सारे जीव जीना चाहते
मरने की किसी की भी इच्छा नहीं है।
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दशवैकालिक (6/10)