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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 2 88
देखकर उसका पूर्व वैर उबुद्ध हो गया। वह परिव्राजिका का रूप बनाकर जटाओं से भीषण जल बरसाने लगी व प्रभु के कोमल स्कंधों पर खड़ी होकर तेज हवा करने लगी। लेकिन प्रभु विचलित नहीं हुए। उस समय समभावों की उच्च श्रेणी पर आरोहित होते हुए प्रभु को लोकाऽवधि ज्ञान प्राप्त हुआ। प्रभु के धैर्य, समताबल के समक्ष वह पराजित हो गई व चरणों में झुक क्षमायाचना कर के चली गई। संगम देव का उपसर्ग
देवेन्द्र के मुख से प्रभु वीर की अडोल साधना की प्रशंसा सुन संगम नामक अभिमानी देव ने प्रभु को विचलित करने का विचार किया। संगम ने एक रात्रि में 20 विकट उपसर्ग श्रमण महावीर को दिए, वे इस प्रकार हैं1. प्रलयकाल की तरह भीषण धूल की वर्षा की, जिससे प्रभु के कान, नाक, नेत्र इत्यादि सुन्न
हो गए। 2. वज्रमुखी चींटियाँ उत्पन्न की जिन्होंने श्रमण महावीर के संपूर्ण देह को खोखला करने का निरर्थक .
प्रयत्न किया। 3. संगम ने फिर मच्छरों का झुण्ड श्रमण वीर पर छोड़ा जो प्रभु के शरीर का खून (दुग्धवर्णी)
चूसते रहे। 4. प्रभु के शरीर से चिपट कर उसे काटे, ऐसी तीक्ष्णमुखी दीमकें उत्पन्न की। 5. जहरीले बिच्छुओं की सेना तैयार कर महावीर पर आक्रमण कराया जो तीक्ष्ण डंक से डसने
लगे। 6. भयंकर नाद करते हुए माँस को छिन्न-भिन्न करने वाले नेवले प्रभु वीर पर छोड़े। 7. नुकीले दाँतों वाले विषधर सर्प छोड़े जो वीर प्रभु को काटते रहे। 8. संगम ने फिर चूहे उत्पन्न किए। वे अपने दांतों से श्रमण महावीर को काटने लगे तथा घावों
पर मलमूत्र का विसर्जन करने लगे। 9. विशालकाय हाथी द्वारा प्रभु वीर को पुनः पुनः आकाश में उछाला तथा गिरने पर पैरों से
रौंद डाला। 10. महाकाय हथिनी का निर्माण किया जो श्रमण महावीर की छाती पर तीखे नुकीले दाँतों से प्रहार
करती रही। 11. वीभत्स पिशाच का रूप बनाया जो संपूर्ण शक्ति से आक्रमण करने लगा।
जिस प्रकार शरीर में मस्तक का तथा वृक्ष में उसकी जड़ का महत्त्वपूर्ण स्थान है उसी प्रकार आत्मधर्म की साधना में ध्यान का प्रमुख स्थान है।
- इसिभासियाइं (21/13)