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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 66
12.
4. बलदेव से कई गुणा अधिक वासुदेव का 5. वासुदेव से कई गुणा अधिक चक्रवर्ती का 6. चक्रवर्ती से कई गुणा अधिक व्यंतर देव का 7. व्यंतर देव से कई गुणा अधिक ज्योतिष्क देव का
ज्योतिष्क देव से कई गुणा अधिक भवनपति देव का
भवनपति देव से कई गुणा अधिक सौधर्मादि 12 कल्प देवों का . 10. कल्प वैमानिक देव से गुणा-गुणा अधिक नवग्रैवेयक का 11. नवग्रैवेयक से कई गुणा अधिक अनुत्तर देवों का
अनुत्तर देवों से कई गुणा अधिक आहारकशरीरी का 13. आहारक-शरीरी से कई गुणा अधिक गणधर का 14. एवं गणधर से सहस्रों गुणा अधिक रूप-लावण्य सौंदर्य तीर्थंकरों का होता है।
प्रभु का रूप अत्यंत तेजस्वी एवं मनोहर होता है। वे सुस्वरत्व से युक्त होते हैं। उनका देह शृंगारित किन्तु अलंकार रहित होते हुए भी विभूषित होता है। वे परम श्री से शोभान्वित होते हैं। इसके साथ ही उनके शरीर पर लक्षण व व्यंजन होते हैं।
तीर्थंकरों के चमकदार, उज्ज्वल, अनारवत् स्नेहनिबिड पूरे 32 दाँत होते हैं अर्थात् वे लक्ष्मीपति होते हैं। उनके अंगूठे के मध्य भाग में यव का आकार होता है, अर्थात् वे परम विद्यावान यशस्वी होते हैं। तीर्थंकरों का देह दृढ होता है, अर्थात् वे सुखी रहते हैं। उनकी भुजाएँ दीर्घ होती हैं, अर्थात् उन्हें ईश्वरत्व होता है। हाथ-पैर में अनेकानेक लक्षण होते हैं, अर्थात् उनका भाग्य उत्तम होता है। उनके व्यंजन होते हैं, अर्थात् वे उदार, शांत गुणी होते हैं।
व्यक्ति का जब जन्म होता है, तब उसके अंग में पुण्यरेखाप्रमुख रेखाएँ प्रकट होती है, उसे लक्षण कहते हैं। (पुरुष के लिए) मसा, तिल, लहसुन इत्यादि दाहिनी ओर के शुभ व्यंजन होते हैं। सामान्य भाग्यवान पुरुषों के 32 लक्षण होते हैं
1. छत्र 2. पंखा 3. धनुष 4. रथ 5. वज्र 6. कछुआ 7. अंकुश 8. बावड़ी 9. स्वस्तिक 10. तोरण
11. तालाब __12. सिंह 13.वृक्ष 14. चक्र 15. शंख
16. हाथी 17.समुद्र 18. कलश
19. प्रासाद 20. मत्स्य 21. यव 22. यूप-यज्ञांग 23. स्तम्भ 24. कमंडल आत्म-साधना में अप्रमत्त रहने वाले साधक, न अपनी हिंसा करते हैं, न दूसरों की-वे सर्वथा अनारम्भअहिंसक रहते हैं।
- भगवतीसूत्र (1/1)