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तीर्थंकर : एक अनुशीलन
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जिज्ञासा - श्री ऋषभदेव जी ने पंचमुष्टि लोच क्यों नहीं किया?
समाधान - श्री ऋषभदेव जी जब सभी देवता-मनुष्य के समक्ष अपना केशलुंचन कर रहे थे, तब उनके द्वारा चार मुष्टि का लोच होने पर सौधर्मेन्द्र ने प्रभु को विनती की कि वे पाँचवीं मुष्टि का लोच न करें। प्रभु के सौंदर्य से अभिभूत होकर शक्रेन्द्र ने ऐसा कहा। इन्द्र की विनती को मान देकर प्रभु ने चतुर्मुष्टिक लोच ही किया। केश होने के कारण वे केशी नाम से भी प्रसिद्ध हुए। कांगड़ा जी आदि तीर्थों पर आज भी ऋषभदेव जी की केश सहित प्रतिमा प्राप्त होती है।
जिज्ञासा - तीर्थंकर जब दीक्षा लेते हैं तो पूर्व के तीर्थंकर के शासन में दीक्षा क्यों नहीं लेते ?
समाधान - प्रत्येक तीर्थंकर को अपने ढंग से तीर्थ की प्ररूपणा करनी होती है। वे जगद्गुरु होते हैं। उनका कोई गुरु नहीं होता। उनके नाम से शासन चलता है। वे अन्य का शासन नहीं चलाते। अगर वे अन्यों के शासन में दीक्षित हो जाते तो वे नए तीर्थ की प्ररूपणा नहीं कर पाते व तीर्थंकर नहीं कहलाते। तीर्थंकर शासन की रचना करते हैं, मात्र संवहन नहीं करता।
जिसको तू मारना चाहता है, वह तू ही है।
___ - आचाराङ्ग (1/5/5/5)