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नामकरण एवं बाल्यकाल
तीर्थंकर परमात्मा के जन्म के बारहवें दिन उनका नामकरण होता है। भरत क्षेत्र की वर्तमान चौबीसी अर्थात् जहाँ हम अभी रह रहे हैं, वहाँ पर उत्पन्न 24 तीर्थंकरों के नामकरण का भी विशेष, किन्तु संक्षिप्त इतिहास प्राप्त होता है, जिसे मूलरूप में नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु ने सुरक्षित तथा कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र ने पल्लवित किया है। विशेष बात यह है कि प्रायः सभी तीर्थंकरों के नाम पितृ-इच्छा से प्रभावित न होकर मातृ - इच्छा से ही प्रभावित
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तीर्थंकर ऋषभ माता मरुदेवी ने चौदह स्वप्नों में सर्वप्रथम वृषभ को देखा था। साथ ही, जब परमात्मा का जन्म हुआ, जब उनके दोनों उरुओं (जंघाओं) पर वृषभ का चिह्न था। अतएव प्रभु का नाम 'ऋषभ' (वृषभ) रखा गया। ऊरुसु उसभ-लंछणं उसभं सुमिणमि तेण उसभ जिणो ।
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क्योंकि ये इस काल के प्रथम साधु- प्रथम राजा, प्रथम तीर्थंकर बने, तो बाद में इनका नाम 'आदिनाथ' भी प्रसिद्ध हुआ । आचार्य हेमचन्द्र ने 'सकलार्हत् स्तोत्र' में भी लिखा हैआदिमं पृथ्वीनाथ - मादिमं निष्परिग्रहम् । आदिमं तीर्थनाथं च, ऋषभस्वामिनं स्तुमः ॥
तीर्थंकर अजित - अक्खेसु जेण अजिआ जणणी अजिओ जिणो तम्हा । चौसर ( द्यूत क्रीडा ) खेल में प्रभु की माता सदैव पराजित हो जाती थी, लेकिन जब प्रभु गर्भ में आए, उसके बाद से माता सदैव विजित हुई, इसीलिए प्रभु का नाम ' अजित' रखा। तीर्थंकर संभव - अभिसंभूआ सासत्ति संभवो तेण वुच्चई भयवं ॥ तीर्थंकर प्रभु के गर्भ में आने के प्रभाव से राज्य के दुष्काल में भी अत्यधिक धान्य ( शस्य) संभावित हो गया । शिशु की महिमा जानकर प्रभु का नाम 'सम्भव' रखा गया ।
जैसे सेनापति के मारे जाने पर सेना नष्ट हो जाती है, वैसे ही एक मोहनीय कर्म के क्षय होने पर समस्त कर्म सहज ही नष्ट हो जाते हैं। दशाश्रुतस्कंध (5/12)
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