________________
तीर्थंकर : एक अनुशीलन
44
देवलोक के 32 लाख विमानों के सभी घंटे बजते हैं। तत्पश्चात्, ईशानेन्द्र लघुपराक्रम नामक देवता से सुघोषा घंटा बजवाता है। शेष इन्द्र भी ऐसा ही करते हैं। इसी प्रकार शंखनाद से भवनपति देव, पटहनाद सुन व्यंतर वाणव्यंतर देव तथा सीयनाद से ज्योतिष देव सावधान हो जाते हैं एवं इन्द्र के पास पहुँचते हैं। (एक योजन लगभग 12 कि.मी.)
इसके बाद पालक देव द्वारा निर्मित पालक विमान में सौधर्मेन्द्र इत्यादि सम्पूर्ण देव परिवार विराजमान होता है तथा नन्दीश्वर द्वीप जाते हैं। उस लक्षयोजन जितने विस्तृत विमान को संकुचित कर भरत, ऐरावत या महाविदेह क्षेत्र में जिनेश्वर देव के जन्मगृह में पहुंचते हैं। फिर सौधर्मेन्द्र भगवान के जन्म घर में जाकर तीर्थंकर तथा तीर्थंकर की माता को नमस्कार कर तीन प्रदक्षिणा देता है। प्रभु के सम्मुख 7-8 कदम जाकर जसका शक्रस्तव से स्तवना करता है। उसके बाद भगवान की माता से कहता है- हे रत्नकुक्षिधारिणी! हे रत्नगर्भे ! हे रत्नदीपिके ! आपने त्रिभुवन धर्ममार्गप्रकाशक, शुभ लक्षणयुक्त जिनेश्वर को जन्म देकर हम पर उपकार किया है। मैं प्रथम देवलोक का इन्द्र हूँ, उनका जन्म महोत्सव करने आया हूँ। तुम बिल्कुल मत डरना।" इतना कहकर 'नमोस्तु रत्नकुक्षिधारिके तुभ्यम्', बोलकर माता को अवस्वापिनी निद्रा में डालकर, भगवान के समान प्रतिबिम्ब बनाकर माता के पास रख देता है।
तब इन्द्र ने पाँच रूप बनाये। एक रूप से दो हाथों से कर-संपुट में तीर्थंकर को रखा। एक रूप से भगवान पर छत्र किया। अन्य दो रूपों से दोनों ओर चामर (चँवर) ढुलाए तथा एक रूप से वज्र उछालते हुए प्रभु के आगे चलने लगा। चौबीस तीर्थंकरों के जन्म के समय इन्द्र ने ऐसे वैक्रिय रूप धारण किए एवं आगामी चौबीसियों में भी ऐसा ही करेगा।
भगवान को हाथों में लेकर इन्द्र परिवार सहित आकाश मार्ग से मेरु पर्वत पहुँचता है। मेरु पर्वत के पांडुक वन में चारों दिशाओं में चार बड़ी-बड़ी शिलाएँ हैं1. पूर्व दिशा में पांडुकम्बला शिला है। इस पर दो सिंहासन हैं। पूर्व विदेह के तीर्थंकर का
अभिषेक यहाँ पर होता है। 2. पश्चिम दिशा में रक्तकंबला शिला है। इस पर दो सिंहासन हैं। पश्चिम विदेह के तीर्थंकर
का अभिषेक यहाँ होता है। 3. उत्तर दिशा में अतिरक्तकंबला शिला है। इस पर एक सिंहासन है। ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकर
का अभिषेक यहाँ पर होता है। दक्षिण दिशा में अतिपांडुकंबला शिला है। इस पर एक सिंहासन है। भरत क्षेत्र के तीर्थंकर का अभिषेक यहाँ होता है।
धर्माचार्य का जहाँ कहीं पर दर्शन करें, वहीं पर उन्हें वन्दना और नमस्कार करना चाहिए।
- राजप्रश्नीय (4/76)