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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 10
श्रुत पद पाँच प्रकार के ज्ञान में श्रुतज्ञान अपूर्व है। क्रम में यह दूसरा है। ज्ञान पद का अर्थ है सद्ज्ञान-भक्ति, अभिनवज्ञान पद का अर्थ है नए ज्ञान का अभ्यास एवं श्रुतपद का अर्थ है साहित्य प्रभावना / परमात्मा की वाणी को अपने शब्दों में लिखकर / लिखवाकर प्रचार-प्रसार से एवं 8 प्रकार के ज्ञानाचार से आराधित श्रुतपद की भक्ति से तीर्थंकर नाम कर्म बँधता है।
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तीर्थ पद (प्रवचन प्रभावना) जंगम-स्थावर तीर्थ, तीर्थंकर प्रभु के जिनधर्म शासन की प्रभावना करना अत्यंत हितकर है। आठ प्रकार की प्रभावना से जिनोपदेश को, जिनधर्म को प्रचारित प्रकाशित करने से, कल्याणक भूमियों के दर्शन - स्पर्शन, अवलम्बन से, चतुर्विध संघ के विस्तार से आत्मा तीर्थंकर नाम गोत्र बाँधती है एवं भवान्तर में तीर्थंकर रूप में जन्म लेती है।
कहा गया है- "अप्पा सो परमप्पा" अर्थात् आत्मा ही परमात्मा बनती है । किन्तु प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि परमात्मा किस प्रकार बना जाए ? इस प्रश्न का सुयोग्य उत्तर निहित है बीस-स्थानक आराधना में। उक्त 20 बोलों / पदों में से किन्हीं एक दो बोलों की भी उत्कृष्ट साधनाआराधना की जाए तो भी अध्यवसायों की श्रेष्ठता से जीव तीर्थंकर नामकर्म बाँधता है। सप्ततिशतद्वार नामक ग्रन्थ में वर्तमान तीर्थंकरों के बारे में कहा है
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पुरमेणे चरमेहिं पुट्ठा जिणहेऊ बीस ते अ इमे । सेसेहिं फासिया पुण एगं दो तिण्णि सव्वे वा ॥
अर्थात् वर्तमान काल के 24 तीर्थंकरों में से प्रथम (ऋषभदेव) एवं अन्तिम (महावीर) तीर्थंकर ने सभी 20 स्थानों की आराधना की, जबकि मध्य के शेष तीर्थंकरों ने एक, दो, तीन, यावत् सभी 20 स्थानों का परमोत्कृष्ट आराधन किया ।
तत्वार्थ सूत्र (श्री उमास्वाति विरचित) में बीस - स्थानों के बदले सोलह भावनाओं का वर्णन प्राप्त होता है। यथा
1. दर्शनविशुद्धि
4. निरन्तर ज्ञानोपयोग 7. संघ-भक्ति
10. अर्हत् भक्ति
13. प्रवचन भक्ति
16. प्रवचनवत्सलता ।
2. विनयसम्पन्नता
5. वैराग्य भावना
8. साधु भक्ति
11. आचार्य भक्ति
14. आवश्यक परिपालन
3. अतिचाररहित शीलव्रत पालन
6. यथाशक्ति तपाराधन
9. तपस्वी-सेवी
12. बहुश्रुत भक्ति
15. जिनशासन प्रभावना
प्रतिमास हजार-हजार गायें दान देने की अपेक्षा, कुछ भी न देने वाले संयमी का आचरण श्रेष्ठ हैं।
उत्तराध्ययन (6/40)