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तीर्थंकर : एक अनुशीलन @ 36
13.
इस स्वप्न का शुभ फल यह है कि माता का तीर्थंकर पुत्र ज्ञान-दर्शन रूप मणिरत्नों का
धीर-गम्भीर धारक होगा तथा केवलज्ञान रत्न पाकर त्रिकाल भावों का ज्ञाता बनेगा। 12. देवविमान - जो सुवर्णमणि के 1008 स्तम्भों से युक्त है एवं दीपक, सूर्य जैसे चमक
रहा है, ऐसा पुंडरीक उत्कृष्ट विमान माता के स्वप्न में मुख में प्रवेश करता है। यह स्वप्न परमात्मा के आधिपत्य का सूचक है। यथा- वे स्वर्ग से अवतीर्ण होंगे, देवताओं द्वारा पूज्य होंगे एवं वैमानिक पर्यंत चारों निकाय के देव प्रभु की सेवा में रहेंगे। जो तीर्थंकर की आत्मा देवलोक के बजाय नरक से आती है, उस तीर्थंकर की माता देवविमान की जगह नागभवन देखती है, ऐसा श्री शास्त्रकार महर्षि लिखते हैं। रत्नराशि - तदनन्तर तीर्थंकर की माता मेरुपर्वत जितनी ऊँची रत्नों की राशि स्वप्न में देखती है। बड़े थाल में पुलक रत्न, वज्ररत्न, नील रत्न, स्फटिक रत्न, हंसगर्भ रत्न, अंजन रत्न, अंक रत्न, ज्योति रत्न इत्यादि उत्तम जाति के रत्न सुशोभित हैं। यह स्वप्न इस बात का सूचक है कि माता को गुणयुक्त, मणिरत्नों से विभूषित पुत्र की प्राप्ति होगी, जो ज्ञान-दर्शन-चारित्र इत्यादि रत्न पाकर तीन गढ़ वाले समवसरण में बैठकर भव्य जीवों को धर्मोपदेश देगा। निधूम अग्नि - मधु और घृत से सिंचित, लाल-पीले वर्ण वाली छोटी-बड़ी शिखाएँ, बिना धुएँ की जाज्वल्यमान अग्नि अर्थात् निर्धूम अग्नि को माता अन्तिम स्वप्न के रूप में देखती है। इस महास्वप्न का फल यह है कि पुत्र भावी तीर्थंकर अत्यन्त दीप्तवन्त (तेजस्वी) होगा। वह धर्मरूप सुवर्ण को विशुद्ध और निर्मल करने वाला तथा कर्ममल रूपी ईंधन को भस्म कर देने वाला प्रकट प्रभावी व्यक्तित्व होगा।
इस प्रकार इन 14 महास्वप्नों को तीर्थंकर की माता देखती है एवं तीर्थंकर पक्ष (सन्दर्भ) में इनके फल सुनती है।
___ जैन धर्म की दिगम्बर परम्परा के अनुसार तीर्थंकर की माता 16 स्वप्न देखती है। दोनों परम्पराओं में 13 स्वप्न एवं उनके फल समान हैं। किन्तु दिगम्बर आम्नाय में जहाँ ‘झष' (अर्थात् मीनयुगल) का उल्लेख है, वहीं श्वेताम्बर साहित्य में ‘झय' (अर्थात् धर्मध्वजा) का वर्णन है। सम्भव है कि साहित्यिक त्रुटि के कारण ‘झय' के स्थान पर ‘झष' हो गया हो। इनके अतिरिक्त दिगम्बर साहित्य के अनुसार 2 स्वप्न अधिक माने गए हैं- सिंहासन जो मध्यलोक का स्वामित्व दर्शाता है तथा नागभवन, जो अधोलोक का आधिपत्य दर्शाता है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार नरक से
14.
सब जीवों के, और क्या देवताओं के भी जो कुछ कायिक और मानसिक दुःख हैं, वे काम-भोगों की सतत आसक्ति एवं अभिलाषा से उत्पन्न होते हैं।
- उत्तराध्ययन (32/19)