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तीर्थंकर : एक अनुशीलन
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इस संसार में जगह-जगह क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायों के अंगारे बिखरे हुए हैं। सामान्य व्यक्ति इनको पार नहीं कर पाता एवं विकारों के भँवर में फँस जाता है। किन्तु अनन्त दया के अवतार-तीर्थंकर परमात्मा केवल स्वयं इन्हें पार कर उच्च शिखर पर आरूढ़ हो जाते हैं, बल्कि जनसाधारण के लिए तीर्थ/पुल का निर्माण करते हैं। व्यक्ति अपनी शक्ति एवं भक्ति के अनुसार साधुसाध्वी-श्रावक-श्राविका रूपी पुलपर चढ़कर अथवा श्रुतज्ञान प्रवचन को जीवन के अध्यात्म में जोड़कर नर से नारायण बनने का मार्ग खोल सकता है।
जिज्ञासा : शास्त्रों में चार प्रकार के निक्षेपों का वर्णन आता है। इन निक्षेपों से तीर्थंकर का स्वरूप कैसे समझें ? समाधान : अनुयोगद्वार सूत्र में शास्त्रकार महर्षि फरमाते हैं
जत्थ य जं जाणेज्जा, निक्खेयं निक्खिये निरवसेसं।
जत्थ वि य न जाणेज्जा, चउक्कयं निक्खिये तत्थ॥ अर्थात् - जहाँ जिसके जितने निक्षेप ज्ञात हों, वहाँ उतने निक्षेप करना एवं जिसमें अधिक मालूम न हो, वहाँ कम-से-कम चार निक्षेप तो अवश्य करने चाहिए1. नाम निक्षेप - वस्तु का आकार रहित एवं गुणरहित निक्षेप जिसके सांकेतिक नाम से उसका बोध हो सके। जैसे-तीर्थंकर का नाम ऋषभ या महावीर, पार्श्व या सीमंधर आदि होना। 2. स्थापना निक्षेप- वस्तु के नाम व आकार सहित हो किन्तु गुणरहित हो। यह निर्जीव होने पर भी सजीव के समान प्रभाव देती है। जैसे-तारक तीर्थंकरों की प्रतिमा, मूर्तियाँ, चित्र, चरण-पादुका आदि। 3. द्रव्य निक्षेप - वस्तु के नाम, आकार व भूत-भविष्य के गुण सहित हो पर वर्तमान में गुणरहित हो। जैसे-जो आत्माएँ तीर्थंकर बनने वाली हैं या तीर्थंकर पद भोग चुकी हों किन्तु वर्तमान में तीर्थंकर नहीं है। | 4. भाव निक्षेप - वस्तु के आकार, नाम और वर्तमान गुण सहित हो। अर्थात् जो वर्तमान में तीर्थंकर हो, समवसरण में बैठकर देशना देते हों, वे भाव तीर्थंकर होते हैं।
एक बार भूल होने पर दुबारा उसकी आवृत्ति न करें। - दशवैकालिक (8/47)