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४ / तीर्थंकर चरित्र
६. दुषमदुषमा
इक्कीस हजार वर्ष
उत्सर्पिणी काल में ये ही छह विभाग उल्टे क्रम से होते हैं। सर्प की पूंछ से मुंह तक क्रमशः मोटापन रहता है उसी तरह इन विभागों का काल क्रमशः वृद्धिंगत होता चला जाता है। अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी इन दोनों को कालचक्र कहते हैं। कालचक्र की अवधि बीस करोड़ा करोड़ सागर की होती है ।
यौगलिक युग (अरण्य युग)
यौगलिक युग में मनुष्य श्रम के आदी नहीं थे। उस समय पृथ्वी उत्कृष्ट रूप, रस, गंध, स्पर्श से युक्त थी । यौगलिक युग के मनुष्य को यौगलिक कहा जाता था क्योंकि वे युगल रूप में उत्पन्न होते थे । उनको श्रम करने की जरूरत नहीं रहती थी। बिना श्रम किए खाने पीने, रहने आदि की समस्त अपेक्षाएं कल्पवृक्षों से पूरी हो जाती थी । कल्पवृक्ष भी इतने थे कि किसी को उन्हें अपने अधिकार में करने की इच्छा ही उत्पन्न नहीं होती थी। जिस किसी को भूख लगी, वृक्ष से फल तोड़े और खाये । पत्ते तोड़े और पहने। फूल तोड़े और श्रृंगार सजा । कहीं कोई बाधा नहीं थी। उन्हें किसी वस्तु का संग्रह करने की जरूरत नहीं थी । कल्पवृक्ष दस प्रकार के होते थे जो उन यौगलिकों के काम आते थे । वे इस प्रकार हैं
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१. मत्तंग
२. भृगांग
३. त्रुटितांग ४. दीपांग
- मद्य सदृश रस को देने वाले
- पात्र -भाजन देने वाले
- आमोद-प्रमोद के लिए वाद्य देने वाले
- प्रकाश देने वाले
५. ज्योति
६. चित्रांग
७. चित्तरस
८. माणियंग
९.
हागार
१०. अनग्न
यौगलिक - जीवन के मुख्य तथ्य
• यौगलिक पुरुष एवं स्त्री का एक साथ जन्म होता और एक साथ ही मृत्यु को प्राप्त होते ।
० भाई-बहिन, पति-पत्नी, माता-पिता, पुत्र-पुत्री के अतिरिक्त कोई पारिवारिक
संबंध नहीं था ।
० राजा प्रजा की कोई व्यवस्था नहीं थी ।
• समाज नहीं था ।
- उष्णता प्रदान करने वाले
- विविधवर्णी पुष्प देने वाले
- अनेक रस देने वाले
- चमकदार आभूषणों की संपूर्ति करने वाले
-गृह आकार वाले
- वस्त्र आपूर्ति करने वाले