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तीर्थंकर चरित्र / ३
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के रूप में अवतरित होना या जन्म लेना। गीता की दृष्टि में अवतार लेने का एक मात्र उद्देश्य है कि इस सृष्टि में चहुं ओर जब अधर्म का साम्राज्य फैल जाता है, उसे छिन्न-भिन्न कर साधुओं का परित्राण व दुष्टों का नाश कर धर्म की स्थापना करना । वैदिकों के ईश्वर को स्वयं राग-द्वेष से मुक्त रहकर भी भक्तों के लिए राग व द्वेष जन्य कार्य करना पड़ता है। जन हित के लिए संहार का कार्य भी करना पड़ता है। ईश्वर को मानव बनकर पुण्य-पाप करने पड़ते हैं। इसे वे लोग भगवान् की लीला के रूप में चित्रित करते हैं। जैन धर्म का इस अवतारवाद में विश्वास नहीं है। सिद्धत्व या ईश्वरत्व प्राप्त आत्मा पुनः कभी भी सकर्मा नहीं बनती। ऐसी स्थिति में वह न जन्म लेती है न ही राग-द्वेष मूलक प्रवृत्तियों में संलग्न होती हैं। यह सुनिश्चित है कि प्रत्येक व्यक्ति साधना के द्वारा आंतरिक शक्तियों का विकास कर तीर्थंकर या केवली बन सकता है।
कालचक्र
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जैन धर्म के अनुसार सृष्टि अनादि काल से गतिशील है। इसकी न ही आदि है और न ही अंत | वैदिक परंपरा इसे ईश्वरकृत मानती है। जैन धर्म की यह स्पष्ट अवधारणा है कि यह दृश्यमान जगत् परिणामी नित्य है । द्रव्य की अपेक्षा से यह नित्य और ध्रुव है, पर पर्याय की अपेक्षा से यह प्रतिक्षण परिवर्तनशील है। जिस प्रकार दिवस के बाद रात्रि व रात्रि के बाद दिवस आता है। वर्ष में छह ऋतुएं होती हैं और वे एक निश्चित समय-सीमा के साथ परिवर्तित होती रहती हैं। काल (Time) का क्रम भी निरंतर बदलता रहता है। दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, वर्ष, युग आदि के रूप में जीवों के कभी सुख व कभी दुःख का दौर चलता है। वह कभी उत्कर्ष का वरदान प्राप्त करता है तो कभी अपकर्ष का अभिशाप भी। ये सब अनादिकालीन है, इनकी संतति निरंतर चल रही है। संसार के अपकर्ष व उत्कर्षमय काल को जैन धर्म में क्रमशः अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी कहा गया है। जो काल क्रमशः ह्रास की ओर उन्मुख होता है वह अवसर्पिणी तथा जो विकास की ओर अग्रसर होता है वह उत्सर्पिणी काल कहा जाता है ।
अवसर्पिणी काल के छह विभाग हैं जिन्हें अर कहा गया है। सर्प के मुंह से पूंछ तक क्रमशः पतलापन रहता है उसी तरह इन विभागों का काल क्रमशः संकुचित होता चला जाता है। छह विभाग इस प्रकार हैं
१. सुषमसुषमा
२. सुषमा
३. सुषमदुषमा
४. दुषमसुषमा ५. दुषम
चार करोड़ करोड़ सागर
तीन करोड़ा करोड़ सागर
दो करोड़ करोड़ सागर
बयालीस हजार वर्ष कम एक करोड़ा करोड़ सागर इक्कीस हजार वर्ष