Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचन्ताामाणः
स्वीकारको यदि सिद्ध मानोगे, तो वह उलाहना कैसे हुआ ? क्योंकि प्रमाणसिद्ध पदार्थमें किसीको विवाद नहीं हुआ करता है। इसपर यदि तुम्हारा यह नया आक्षेप होय कि दूसरे जैनोंके कथन मात्रसे उनके स्वीकार करनेको हमने थोडी देरके लिये सिद्ध मान लिया है, किन्तु वह समीचीन या मिथ्या है ? इसमें विवाद विद्यमान है। इस कारण दोषोंके दीख जानेसे उलाहना देना बहुत ठीक है, जैसे कि गुणोंके दीख जानेसे कहीं समाधान करना श्रेष्ठ हो जाता है । इस प्रकार कहनेपर तो हम जैन पूंछते हैं कि फिर कौनसे दोषका इस कथंचित् भेद अभेदमें दीखना होरहा है ? बताओ तो सही भाइओ ! अनवस्था दोषका दीखना कहो, यह तो ठीक नहीं, क्योंकि उस अनवस्था दोषका परिहार पहले प्रकरणोंमें किया जा चुका है । कथंचित् भेद अभेदमें विरोध दोषका दीखना यह भी ठीक नहीं पडेगा, क्योंकि अनुपलम्भ होनेसे विरोध साधा जाता है। दोनों धर्मोकी एक स्थान में प्रतीति होनेपर तो विरोधदोष नहीं उतरता है । भेद अभेदके अनेकान्तमें संशय दोषका दीखना यह तो नहीं सम्भवता है । क्योंकि एक धर्मीमें चलायमान दो आदि वस्तुओंकी प्रतिपत्ति कर लेना संशयज्ञान है । किन्तु यहां कथंचित् भेद अभेदमें प्रतिपत्तियोंका चलितपना नहीं है।
वैयधिकरणस्यापि न दर्शनं, सामान्यविशेषात्मनोरेकाधिकरणतयावसायात् । संकरव्यतिकरयोरपि न तत्र दर्शनं तद्व्यतिरेकेणैव प्रतीतेः । मिथ्याप्रतीतिरियमिति चेन, सकलबाधकाभावात् ।
न्यारे न्यारे भेद और अभेदका भिन्न भिन्न ही अधिकरण होगा। इस प्रकारके वैयधिकरण दोषका भी दर्शन नहीं है। क्योंकि सामान्यरूप विशेषरूपका एक अधिकरणमें रहनेपने करके निर्णय हो रहा है, उन भेद अभेदोंमें दोनों धर्मोकी युगपत् प्राप्ति हो जानारूप संकर और परस्परमें धर्मोका विषय गमनरूप व्यतिकर दोषोंका भी दीखना नहीं है । क्योंकि उन संकीर्णपन और व्यतिकीर्णपनरूपसे अतिरिक्तस्वरूप करके ही कथंचित् भेद अभेदकी प्रतीति हो रही है। यह प्रतीति तो मिथ्या है, यह न कहना । क्योंकि संपूर्ण बाधकप्रमाणोंका अभाव है । घटको जाननेवाले आत्मा से घटज्ञान अभिन्न है, क्योंकि न्यारा नहीं किया जा सकता है । तथा आत्माके नहीं नष्ट होते हुये भी घटज्ञान विघट जाता है । इस कारण आत्मासे घटज्ञान भिन्न है । ऐसे ही सामान्य और विशेषमें भी लगा लेना । यानी कथंचित सामान्य विशेष भी एकमएक हो रहे हैं।
विशेषमात्रस्य सामान्यमात्रस्य वा परिच्छेदकप्रत्ययः बाधकमिति चेन्न, तस्य जातुचित्तदपरिच्छेदित्वात्, सर्वजात्यंतरस्य सामान्यविशेषात्मनो वस्तुनस्तत्र प्रतिभासनात् प्रत्यक्षपृष्ठभाविनि विकल्पे तथा प्रतिभासनं न प्रत्यक्षे निर्विकल्पात्मनीति चेन्न, तस्या सिद्धत्वात् सर्वथा निर्विकल्पस्य निराकरिष्यमाणत्वात् ।
__“प्रमेयद्वैविध्यात् प्रमाणद्वैविध्यं ” के अनुसार प्रत्यक्षप्रमाणसे विशेष और अनुमानसे सामान्यको विषय हुआ माननेवाला यदि यहां कोई यों कहें कि केवल विशेषका और अकेले रीते