Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
सामान्यका परिच्छेद करनेवाला ही ज्ञान होता है, दोनोंको कोई भी एक ज्ञान नहीं जान पाता है। अतः सामान्य और विशेषको अभेदरूपसे जाननेवाले जैन अभिमत ज्ञानका बाधक है । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि वह समीचीन ज्ञान कभी भी उन अकेले सामान्य या रीते विशेषको परिच्छेद करनेवाला नहीं है । उस प्रतीतिमें तो सम्पूर्ण एकान्तोंसे निराली ही जातिवाली सामान्य, विशेष, आत्मक वस्तुका प्रतिभास हो रहा है । इसपर बौद्ध यदि यों कहें कि सर्वथा भेद अभेदसे तीसरी ही जातिके कथंचित् भेद अभेदको लिये हुये सामान्य विशेषरूप पदार्थका उस प्रकार प्रतिभास हो जाना तो प्रत्यक्ष प्रमाणके पीछे होनेवाले झूठे विकल्प ज्ञानमें होता है । ठीक वस्तुको जाननेवाले निर्विकल्पस्वरूप प्रत्यक्ष ज्ञानमें तो सामान्य विशेष आत्मक वस्तु नहीं प्रतिभासती है । अब ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि वह निर्विकल्पक प्रत्यक्ष असिद्ध है । सभी प्रकार ज्ञानोंके निर्विकल्पक होनेका भविष्य ग्रन्थमें हम निराकरण करनेवाले हैं । सभी ज्ञान साकार हो रहे सन्ते सबिकल्प हैं। __अनुमानं बाधकमिति चेन्न, तस्य विशेषमात्रग्राहिणोऽभावात् सामान्यमात्रग्राहिवत् । सामान्यविशेषात्मन एव जात्यंतरस्थानुमानेन व्यवस्थितेः। यथा हि । सामान्यविशेषात्मकमखिलं वस्तु, वस्तुत्वान्यथानुपपत्तेः । वस्तुत्वं हि तावदर्थक्रियया व्याप्तं सा च क्रपयोगपद्याभ्यां, ते च स्थितिपूर्वापरभावत्यागोपादानाभ्यां, ते च सामान्यविशेषात्मकत्वेन सामान्यात्मनोपाये स्थित्यसंभवात् । विशेषात्मनोसंभवे पूर्वापरस्वभावत्यागोपादानस्यानुपपत्तेः । तदभावे क्रपयोगपद्यायोगादनयोरर्थक्रियानवस्थितेः न कस्यचित्सामान्पैकांतस्य विशेषकांतस्य वा वस्तुत्वं नाम खरविषाणवत् ।
सामान्य, विशेष, आत्मक वस्तुको जाननेवाले ज्ञानका बाधक प्रमाण अनुमान है, यह तो न कहना । क्योंकि केवल विशेषों को ही ग्रहण करनेवाले उस अनुमानका अभाव है, जैसे कि केवल सामान्यको ही ग्रहण करनेवाला अनुमान नहीं सिद्ध है । प्रत्युत सर्वथाभेद अभेदोंसे भिन्न तीसरी जातिवाले सामान्य विशेष आत्मक ही वस्तुकी अनुमान प्रमाण करके ग्रहण व्यवस्था होरही है। वह जिस प्रकार है सो सुनिये । सम्पूर्ण वस्तुयें ( पक्ष ) सामान्य और विशेष अंशोंके साथ तदात्मक हो रही हैं ( साध्य ) अन्यथा वस्तुपना नहीं बन सकता है ( हेतु ) इस हेतुका आचार्य समर्थन करते हैं कि पहले इस बातको । समझो कारण कि वस्तुपना तो अर्थक्रियारूप साध्यसे व्याप्त हो रहा है और वे अर्थक्रियायें अर्थमें क्रमसे होंगी अथवा युगपत् होंगी। अतः वे अर्थक्रियायें क्रम और योगपद्यसे व्याप्त हो रही हैं तथा वे दोनों क्रमयोगपद्य भी ध्रौव्यके साथ रहनेवाले पूर्वस्वभावोंका त्याग और उत्तर स्वभावोंका ग्रहण करनारूप परिणामसे व्याप्त हैं और वे स्थितिसहित हान उपादानत्रय भी सामान्य, विशेष, आत्मकपनेके साथ व्याप्ति रखते हैं। क्योंकि वस्तुके सामान्य