Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
करा देना। यहां प्रत्येकको तृप्तिपूर्वक भोजन कराया जाता है । अतः यहां भी मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, और केवल इन पांचोंमें प्रत्येकरूपसे भोजनके समान ज्ञान शद्वका सम्बन्ध करना माना गया है । उस कारण पांचोंका समुदाय एक ज्ञान है, इस प्रकार इस अनिष्ट अर्थकी निवृत्ति हो जाना प्रयोजन सधजाता है । ये पांचों अकेले अकेले स्वतंत्र पांच ज्ञान हैं ।
मत्यादीनि ज्ञानमित्यनिष्टार्थो न शंकनीयः, प्रत्येकं ज्ञानशद्वस्याभिसंबंधाद्भुजित् । न चायमयुक्तिकः सामान्यस्य स्वविशेषव्यापित्वात् सुवर्णत्वादिवत् । यथैव सुवर्णविशेषेषु कटकादिषु सुवर्णसामान्यं प्रत्येकमभिसंबध्यते कटकं सुवर्ण कुंडलं सुवर्णमिति । तथा मतिर्ज्ञानं श्रुतं ज्ञानं, अवधिर्ज्ञानं, मन:पर्ययो ज्ञानं, केवलं ज्ञानमित्यपि विशेषाभावात् ।
मति आदिक पांचोंका सत्तू के समान मिला हुआ एक पिण्ड होकर एक ज्ञान है, इस प्रकारके अनिष्ट अर्थ हो जानेकी शंका नहीं करना चाहिये। क्योंकि पांचोंमेंसे प्रत्येक प्रत्येकमें ज्ञान शद्वकी भोजनक्रिया कराने के समान चारों ओर सम्बन्ध हो रहा है । यह कहना युक्तियोंसे रहित नहीं है । क्योंकि सुवर्णत्व, मृत्तिकात्व आदिके समान सामान्य पदार्थ अपने विशेषोंमें व्याप रहा है । जिस ही प्रकार सुवर्णके विशेष परिणाम कडे, केयूर, कुंडल, आदिकोंमें सामान्य रूपसे सुवर्णपना प्रत्येक में सब ओरसे संबद्ध है । खडुआ सोना है । कुंडल सोना है, वजू सोना है, इत्यादि । इसी प्रकार मतिनामक ज्ञान है, श्रुत भी ज्ञान है तथा अवधि भी एक ज्ञानविशेष है एवं मन:पर्ययरूप ज्ञान है, केवल भी पूरा ज्ञान है। इन विशेष विशेष ज्ञानों में भी सामान्य ज्ञानपनेका सन्बन्ध हो रहा है 1 कोई अन्तर नहीं है ।
सामान्यबहुत्वमेवं स्यादिति चेत्, कथंचिन्नानिष्टं सर्वथा सामान्यैकत्वे अनेकस्वाश्रये सकृद्वृत्तिविरोधादेकपरमाणुवत् । क्रमशस्तत्र तद्वृत्तौ सामान्याभावप्रसंगात् सकृदनेकाश्रयवर्तिनः सामान्यस्योपगमात् । न चैकस्य सामान्यस्य कथंचिद्बहुत्वमुपपत्तिविरुद्धं बहुव्यक्तितादात्म्यात् ।
जैन इस प्रकार कहने पर तो प्रत्येक विशेषमें पूर्णरूपसे व्यापने वाले सामान्य भी बहुत बन जायेंगे ऐसा कटाक्ष करनेपर तो हम जैन कहते हैं कि इस प्रकार सामान्यका कंथचित् बहुतपना हमको अनिष्ट नहीं है। हाँ, सभी प्रकार सामान्य (जाति) का एकपना माननेपर तो वैशेषिकों के यहाँ एक निरंश सामान्यका अनेक अपने आश्रयोंमें एक ही समय पूर्णरूप से वर्तनका विरोध होगा जैसे कि एक परमाणु एक ही समय अनेक स्थानोंपर नहीं ठहर सकता है । यदि उन अनेक आश्रयों में उस सामान्यकी क्रम क्रमसे वृत्ति मानी जावेगी तो वैशेषिकोंके द्वारा माने गये लक्षण अनुसार सामान्यके अभावका प्रसंग होगा । वैशेषिकोंने एक ही समय अनेक आश्रयोंमें ठहरनेवाला सामान्य पदार्थ स्वीकार किया है । " नित्यमेकमनेकानुगतं सामान्यं" जो नित्य है एक है और सकृत् अनेकों में अनुगत
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