Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
किया है। दूसरी बात यह है कि उस केवलज्ञानका मोक्ष अवस्थामें भी अनन्तकालतक विद्यमान रहनेका निश्चय है। तिस कारण ही मोक्षके कारण पांचवें ज्ञानका अनुष्ठान अन्ततक करने योग्य है। इस प्रकार पांच ज्ञानोंके क्रमसे प्रयोग करनेमें श्रीविद्यानन्द आचार्यने संगति बता दी है। इन बातोंसे सूत्रकारके अन्तरङ्ग महान् पाण्डियका सहजमें अनुमान किया जा सकता है । साथमें उस पाण्डित्यको समझनेवालेका भी॥
न हि सूत्रेस्मिन्मत्यादिशद्वानां पाठक्रमे यथोक्तहेतुभ्यः शद्धार्थन्यायाश्रयेभ्योऽन्येपि हेतवः किं नोक्ता इति पर्यनुयोगः श्रेयास्तदुक्तावप्यन्ये किन्नोक्ता इति पर्यनुयोगस्यानिवृत्तेः कुतश्चित्कस्यचित्कचित्संप्रतिपत्तौ तदर्थहेत्वंतरावचनमिति समाधानमपि समानमन्यत्र ।
इस सूत्रमें मति आदि शद्बोंके पाठक्रममें शद्वसम्बन्धी और अर्थसम्बन्धी न्यायके आश्रय अनुसार होनेवाले जिस प्रकारके कहे हुये हेतुओंसे अन्य भी कारण श्रीविद्यानन्द स्वामाने क्यों नहीं कहे ! इस प्रकार किसीका कटाक्षसहित प्रश्न उठाना अधिक श्रेष्ठ नहीं है, यानी कुछ अच्छा नहीं है। क्योंकि उन अन्य हेतुओंके कहनेपर भी उनसे अन्य हेतु क्यों नहीं कहे इस प्रकारका कुचोध करना फिर भी निवृत्त नहीं हो सकता है। यदि किसी भी हेतुसे किसी भी श्रोताको कहीं भी भले प्रकार प्रतिपत्तिके होचुकनेपर पुनः उसके लिये अन्य हेतुओंका व्यर्थ वचन नहीं किया जाता है। इस प्रकार समाधान करोगे तो अन्यत्र यानी पहले कटाक्षमें भी यही समाधान समान रूपसे लागू होजायगा । भावार्थ-मति आदिक शवोंके पहिले पीछे प्रयोग करनेमें वार्तिककारने दो दो तीन तीन हेतु बता दिये हैं। इनसे अतिरिक्त भी हेतु कहे जासकते हैं, जैसे कि विशेषविशेषरूपसे संयमकी वृद्धि होनेपर ही मति आदि ज्ञानोंकी क्रमसे पूर्णता होती है या उत्तरोत्तर ज्ञानोंमें बहिरंग कारणोंकी अपेक्षा कमती कमती होती जाती है किन्तु पदोंके पूर्वापर प्रयोग करनेमें जिस किसी शिष्यको जिस किसी भी उपायसे संतोषजनक प्रतिपत्ति होजाय तो फिर इस अल्पसार कार्यके लिये लम्बे चौडे शास्त्रार्थकी या सभी हेतुओंके बतानेकी आवश्यकता नहीं समझी जाती है। जितना कह दिया उतना ही पर्याप्त है । बहुतसा मूल्यवान् माल गुरुओंकी गांठमें पड़ा रहता है । सबका अपव्यय नहीं कर दिया जाता है।
ज्ञानशदस्य संबंधः प्रत्येकं भुजिवन्मतः ।
समूहो ज्ञानमित्यस्यानिष्टार्थस्य निवृत्तये ॥ १६ ॥
विधेय पदका अन्वय कहीं तो समुदायमें होता है जैसे कि अमुक ग्रामके निवासी मनुष्योंपर स्वच्छता न रखनेके कारण सौ रुपये दण्ड किया जाता है । यहां प्रत्येक मनुष्यपर राजाकी ओरसे सौ सौ रुपये दण्ड नहीं है । किन्तु सम्पूर्ण ग्रामनिवासियोंके ऊपर सामूहिक केवल सौ रुपये दण्ड है और कहीं प्रत्येकमें भी विधेयदलका अन्वय होता है, जैसे कि देवदत्त जिनदत्त और इन्द्रदत्तको भोजन