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मुद्राराक्षस में प्रयुक्त प्राकृतों का सार्थक्य
डॉ० रजनीश शुक्ल सांसारिक नानाविध क्रियाकलापों में संलग्न, व्यग्र, शोक-संतप्त तथा दिनभर के शारीरिक श्रम से थके-हारे, चिन्तित मानव के लिए मनोरञ्जन का एकमात्र साधन है- नाट्य या नाटकं ।
दुःखार्तानां श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम् ।
विश्रान्तिजननं काले नाट्यमेतद् भविष्यति ।। इस दृश्य काव्य को रूपक भी कहा जाता है- रूपकं तत्समारोपात् जिसमें दृश्यकलाओं, विद्याओं, शिल्पों एवं ज्ञान-विज्ञानों का एकत्र समावेश पाया जाता है। नाट्य का नाटक काव्य ही है कारण। इसमें विभावानुभावादि के चित्रण से अलौकिक आनन्द (रस) की उपलब्धि होती है और जब गीतसंगीतादि से अनुरञ्जित पात्रों द्वारा उसका प्रयोग दिखलाया जाता है तब वह नाटक का रूप धारण कर लेता है। नाट्य में जीवन के ऐसे व्यापारों एवं घटनाओं का निबन्धन होता है जो सूक्ष्म, कोमल, भावनात्मक तथा मर्मस्पर्शी होते हैं। संवेदनशील आन्तरिक भावों के साथ ही जिसमें बाह्य रसाकर्षक चेष्टाएँ भी समन्वित होती हैं। अत: कहा जा सकता है कि नाट्य में सभी भावों सभी प्रकार के रसों एवं क्रियाकलापों की त्रिवेणी प्रवाहित होती है'सर्वभावैः सर्वरसैः सर्वकर्मप्रवत्तिभिः। नानावस्थान्तरोपेतं नाटकं संविधीयते' ।।'३ नाट्य या रूपक के प्रधान चार तत्त्व हैं -संवाद, गीत, अभिनय तथा रस। रूपक में इन तत्त्वों को अनिवार्य बतलाया गया है। नाट्यकार अपनी रचना में जिस किसी भी भाषा का प्रयोग करता है उसका माधुर्यओज एवं प्रसाद गुण सम्पन्न तथा संवेद्य एवं सम्बोध्य होना आवश्यक है। आचार्य भरत के अभिमतानुसार नाटक वा नाट्य की भाषा मृदु, ललितपद सम्पन्न गूढ़शब्दार्थहीन और जनसुख सम्बोध्य होना चाहिए- मृदुललितपदार्थ-गूढ़शब्दार्थहीनं जनपदसुखसम्बोध्यं युक्तिमन्नश्त्ययोज्यं बहुकृतरसमार्गमं भवति जगति योग्यं नाटकं प्रेक्षकाणाम्। संस्कृत नाटकों में विशेषरूप से संस्कृत एवं जनभाषा प्राकृत का प्रयोग किया जाता है। उच्चकोटि के पुरुष पात्र तथा नायक आदि को संस्कृत का तथा नायिका एवं अन्य स्त्री पात्र और निम्नश्रेणी के समग्र पात्रों को देशज भाषा प्राकृत का प्रयोग युक्तियुक्त