________________
जैन एवं बौद्ध दर्शन में प्रमा का स्वरूप एवं उसके निर्धारक तत्त्व : 39 धर्मकीर्ति की प्रकृत कारिका तथा प्रमा के लक्षण पर विचार के प्रसंग में यह शंका अवश्य होती है कि अनुमितिरूप ज्ञान में अविसंवाद शब्द से क्या प्राप्त करते हैं तथा इसके ऊपर धर्मकीर्ति ने मौन क्यों धारण कर लिया? क्या वहाँ प्रमा का अन्य लक्षण अभिप्रेत है अथवा कोई अन्य उपपत्ति है, जिसे अत्यंत सरल समझकर आचार्य ने उसकी उपेक्षा की है? इस समस्या को समाहित करने के लिए यह तथ्य प्रस्तुत किये जा सकते हैं- १. अनुमिति स्थल में प्रमा का अन्य लक्षण विवक्षित होने पर "अविसंवाद्यनुभव: प्रमा' यह प्रमा सामान्य का लक्षण नहीं रह जायेगा। २. आचार्य का अन्य लक्षण अभिप्रेत होता तो वे उसका भी उल्लेख करते जैसे शब्द प्रमा के लिए अविसंवादन के भिन्न अर्थ अभिप्राय निवेदन का उल्लेख करते हैं। अत: यही लक्षण अविकल्प रूप में सभी प्रमाओं में ग्राह्य है। अनुमिति स्थल में 'अविसंवादन' का अभिप्राय क्या है? इसके उत्तर में यह कह सकते हैं कि व्याप्ति स्मरण के अनन्तर पक्ष धर्मता ज्ञान से होने वाली अनुमिति में अभ्यासदशापन्न ज्ञान की तरह विसंवादाभाव सुतरां रहता है, क्योंकि धूम में अग्नि के साहचर्य का निश्चय हो जाने के पश्चात् यह शंका ही नहीं रह जाती कि धूम अग्नि को छोड़कर कही अन्यत्र रह सकता है अतः धूम में पक्ष वृत्तिता का ज्ञान होने के पश्चात् अग्नि की असंदिग्ध उपस्थिति होती है। अत: व्याप्ति के निश्चय में ज्ञानान्तर संवाद की भले ही आवश्यकता हो अनुमिति में उसकी आवश्यकता नहीं रह जाती है। न्यायादि-दर्शनों में 'अयंघट' यह साविकल्प प्रत्यक्षात्मक प्रमा ज्ञान तथा 'रज्जु' में 'सर्प' यह भ्रमात्मक ज्ञान के रूप में स्वीकृत है। किन्तु बौद्ध दार्शनिक इन दोनों ही ज्ञानों को कल्पनाजनित ही मानते हैं। इनके अनुसार घट के साथ चक्षुरिन्द्रिय का सन्निकर्ष होने पर रूप मात्र की प्रतीति होती है, जो यथार्थतः प्रत्यक्ष है। तदनन्तर पूर्व संस्कारवासना से रसादि का स्मरण होता है। रस, रूपादि की प्रतीति कल्पना प्रयुक्त है। फलतः कल्पनापोढ़ न होने से यह ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है। रज्जु में सर्प की प्रतीति भी कल्पना प्रयुक्त ही है। इन्द्रिय सन्निकर्ष के अनन्तर रज्जु के आकार का अवगाही निर्विकल्प ज्ञान प्रथमतः होता है। मन्द प्रकाश आदि कारणों से रज्जु स्वरूप, प्रत्यक्ष के अनन्तर स्फुटतया अवभासित नहीं होता, किन्तु पूर्वानुभूत वासनावशात सर्प की प्रतीति होती है। दोनों में कल्पना प्रयुक्त होने पर भी घटज्ञान में अर्थ का अविसंवाद तथा सर्प ज्ञान में विसंवाद होने से, घटज्ञान प्रमात्मक तथा सर्पज्ञान भ्रमात्मक होता है। केवल इन्द्रियजन्य न होने से प्रत्यक्षाभास तो दोनों ही हैं। प्रमा स्वरस्पन्दमान मरीचिनिश्चय का प्रतिभास तो प्रत्यक्षात्मक होता है; किन्तु उसमें जल की कल्पना प्रत्यक्षाभास है। अनुमानजन्य ज्ञान किसी स्थल में प्रत्यक्ष तथा किसी स्थल में अप्रत्यक्ष दोनों ही माना जाता है। पीत शंख ज्ञान, ज्ञान-विषयभूत अर्थ के