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42 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 ज्ञान का स्वसंवेदित्व धर्म भी रहता है। प्रमाण होने से उसे अविसंवादी भी होना अपेक्षित है। विसंवाद, संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय से रहित अविसंवादी सम्यक् ज्ञान प्रमाण होता है। इस संदर्भ में अकलंक का अनधिगतार्थग्राही एवं माणिक्यनन्दि का अपूर्व शब्द समानार्थक है, जो अज्ञात अर्थ का निश्चय करने वाले ज्ञान के लिए अर्थात् प्रमा के लिए प्रयुक्त हुए हैं। इस प्रकार जैन दर्शन में प्रमिति या प्रमाण अज्ञान-निवृत्ति रूप होता है, इसलिए ज्ञान ही प्रमाण माना गया है क्योंकि इष्ट वस्तु का ग्रहण और अनिष्ट वस्तु का त्याग ज्ञान के कारण ही होता है। जैसे अंधकार की निवृत्ति में दीपक साधकतम होता है, उसी प्रकार जानने की क्रिया में साधकतमता ज्ञान की ही रहती है, इन्द्रियों आदि की नहीं। इन्द्रिय सन्निकर्षादि ज्ञान की उत्पादक सामग्रियाँ हो सकती हैं लेकिन वे अचेतन एवं अज्ञान रूप होने के कारण प्रमिति में साक्षात् कारण नहीं हो सकती है। ज्ञान जहाँ स्वयं को जानता है, वहाँ वाह्य अर्थ को भी जानता है, इसलिए स्व और पर का निश्चयात्मक ज्ञान प्रमाण माना गया है।" प्रमाण में अर्थ का सम्यक् निर्णय भी होता है।८ अर्थ के निर्णय में स्व निर्णय भी समाविष्ट होता है। प्रमाण के अन्य लक्षणों मे पाये जाने वाले निश्चित बाधरहित, अदुष्टकारणजन्यतत्त्व, लोकसम्मतत्त्व, अव्यभिचारी व्यवसायात्मक आदि विशेषण प्रकारान्तर से सम्यक् अर्थ को ही व्यंजित करते हैं। जैन दर्शन में प्रमा के स्वरूप
और उसके निर्धारक मानदण्डों की चर्चा करते हुए स्वामी श्री गुरुशरणानन्द ने खण्डनखण्डखाद्य-प्रमा पक्ष में लिखा है कि 'जैन-दार्शनिकों के अनुसार वस्तु की सत्ता में ज्ञानमात्र प्रमाण है'। यद्यपि अन्य दर्शनों में इन्द्रियादि को भी प्रमाण शब्द से व्यवहृत किया गया है, तथापि जैन दार्शनिकों की यह दृष्टि है कि जो अपनी सत्ता के लिए अन्य साधन की अपेक्षा न करे तथा स्वयं दूसरे सत्ता प्रमाणित करे, वही प्रमाण शब्द से व्यवहत हो सकता है। इस परिभाषा की संगति संपूर्ण ज्ञानों मे होने से संपूर्ण ज्ञान प्रमाण है। बाध की स्थिति में ज्ञान को प्रमाण नहीं माना जा सकता। अतएव न्यायावतार में प्रमाण का लक्षण, “प्रमाणं स्वपराभासिज्ञानं बाधविवर्जितम्" इस प्रकार किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि जो ज्ञान अपना तथा अन्य का प्रकाशन करें तथा जिसका विषय बाधित न हो वह प्रमाण है। 'घटमहं जानामि' इत्यादि ज्ञानों में ज्ञान की विषयता प्रकाशित होती है अत: घटादि अर्थों की तरह ज्ञान भी, ज्ञान विषयता प्रकाशित होता है। अतएव 'अयं घट' के समान 'घटमहं जानामि' यह ज्ञान भी प्रमाण है। इस प्रकार सम्यगर्थ के निर्णायक ज्ञान को प्रमाण कहेंगें; क्योंकि यही ज्ञान बाधित नहीं होता। फलत: “सम्यगर्थनिणर्यः प्रमाणम्" यह प्रमाण मीमांसा प्रोक्त लक्षण भी उपर्युक्त अर्थों की ही विवेचना करता है जो सर्वथा जैन सिद्धांत सम्मत है।९