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संस्कृत छाया
अथ स गिरिसरितो विषमतटीं प्राप्य सहसेति ।
अतिवेगभङ्गभीत इव नभस्तलं झटिति उत्पतितः ।। १७५ ।। गुजराती अनुवाद
१८५. अने अचानक ते हाथी पर्वत-नदी विगेरे विषम स्थलोने प्राप्तकरी अति वेगना भंगथी जाणे डी न गयो होय तेम आकाशमा उड्यो. हिन्दी अनुवाद
___तभी अचानक वह हाथी पहाड़, नदी आदि विषम स्थलों से होता हुआ अति वेग के टूटने से जैसे डर गया हो, आकाश में उड़ गया। गाहा
तत्तो भय-भीयाए विचिंतियं हंत! करि-वर-पविट्ठो।
अवहरइ कोवि देवो न जेण करिणो वयंति नहे ।।१७६।। संस्कृत छाया
ततो भयभीतया विचिन्तितं हन्त ! करिवरप्रविष्टः ।
अपहरति कोऽपि देवो न येन करिणो व्रजन्ति नभसि ।।१७६।। गुजराती अनुवाद
१८६. त्यारे अयथी डरेली में विचार्यु के 'हाथीमा प्रवेश करेल कोई पण देवे मारुं अपहरण करेल छे. अन्यथा हाथी आकाशमा उडे नहीं। हिन्दी अनुवाद
तब भय के कारण डरी हुई मैंने विचार किया कि हाथी में प्रवेश किये हुए किसी देव ने मेरा अपहरण किया है, अन्यथा हाथी आकाश में उड़ता नहीं।
गाहा
इय विम्हिय-हियया हं पुणो पुणो जा महिं पलोएमि ।
पिच्छामि ताव गिरि-तरु-पमुहं समगंव वच्चंतं ।।१७७।। संस्कृत छाया
इति विस्मितहृदयाहं पुनः पुनर्यावन्महीं प्रलोकयामि । प्रेक्षे तावद् गिरितरुप्रमुखं समकं वा व्रजन्तम् ।। १७७ ।।