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जैन एवं बौद्ध दर्शन में प्रमा का स्वरूप एवं उसके निर्धारक तत्त्व : 43 न्यायदर्शन, मीमांसा दर्शन और बौद्ध नैयायिक स्मृति को अप्रमा मानते हैं किन्तु जैन दर्शन स्मृति को प्रमा रूप मानते हैं। जैन दर्शन के अनुसार स्मृति केवल पिछले अनुभवों के संस्कारों की केवल पुनः अभिव्यक्ति नहीं है। जैन दर्शन ज्ञान के पाँच प्रकार मानते हैं- मति, श्रुति, अवधि, मन:पर्याय, केवल ज्ञान। मति ज्ञान साधारण ज्ञान है, जो इन्द्रिय से अप्रत्यक्ष संबंध द्वारा प्राप्त होता है, इसी के अन्तर्गत 'स्मृति' संज्ञा अथवा प्रत्यभिज्ञा अथवा पहचान और तर्क अथवा प्रत्यक्ष के आधार पर किया गया आगमन अनुमान, अभिनिबोध या अनुमान अथवा निगमन विधि का अनुमान। मति ज्ञान के तीन भेद किए गये हैं- उपलब्धि अथवा प्रत्यक्ष ज्ञान भावना अथवा स्मृति और उपभोग अथवा अर्धग्रहण। यथाअहिष्यमाणग्राहिण इव गृहीत ग्राहिणोऽपि ना प्रामाण्यम्।
न स्मतेर प्रमाणत्वं गृहीत ग्राहिताकृतम्।
अपि त्यनर्थ जन्यत्वं तदाप्रामाण्य कारणम्।" २९ अर्थात् स्मृति भी परिमाणात्मक होती है, जो विचारक उसे अप्रमाणिक कहते हैं वे भी संस्कार मात्र जन्यता के कारण ही ऐसा कहते हैं। स्पष्ट है कि अर्थ से उत्पत्ति न होना ही स्मृति के अप्रामाण्य का मूल है। फलत: ग्रहीतग्राहित्व को अप्रमाण्य का प्रयोजक नहीं कहा जा सकता। वेदान्त परिभाषाकार ने भी इसी हेतु से स्मृति को प्रमाण माना है।२२ स्मृति को इसलिए अप्रमा नहीं कह सकते कि वह भूतकाल का विषय प्रस्तुत करती है। यह उतनी ही वस्तुनिष्ठ है जितनी कि वे वस्तुयें हैं जो वर्तमान में पायी जाती हैं। जब अनुमान ज्ञान होता है तो स्मृति उसमें सहायक होती है। अनुमान के लिए स्मृति आवश्यक है। स्मृति जन्य ज्ञान इतना उपयोगी है कि अल्प ज्ञान के साधनों में इसका उपयोग जरूरी माना गया है। स्मृति के प्रमात्व की अवहेलना नहीं कर सकते। भूतकाल के ज्ञान तथा अनुमान द्वारा ज्ञान तथा उपमान प्रमाण में भी स्मृति जन्य ज्ञान की उपयोगिता है। स्मृति प्रमात्व की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। स्मृति का विषय वास्तव में वस्तु स्थिति न होकर हमारा पूर्व ज्ञान ही है, वही उसका प्रदत्त है तथा उसी की अनुरूपता पर स्मृति ही प्रमाण ज्ञान पूर्णरूपेण वैयक्तिक घटना है तथा स्मृति के अतिरिक्त किसी भी अन्य माध्यम से उसका ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए पूर्वज्ञान के विषय में स्मृति को प्रमाण मानने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। स्मृति भी यथार्थ अथवा अयथार्थ हो सकती है। अतः प्रमा तथा अप्रमा के भेद को स्मृति के संदर्भ में करके स्मृति को प्रमा के अंतर्गत ही माना जाना चाहिए। जैन दार्शनिकों ने सम्यक् ज्ञान की परिभाषा देते हुए कहा है