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44 : श्रमण,
अंक 2,
अप्रैल-जून, 2015
यथावस्थिततत्त्वानां संक्षेपाद्विस्तारेण वा । यो व बोधस्तामत्राहुः सम्यग्ज्ञानं मनीषिणः ।।
वर्ष 66,
अर्थात् तत्त्वों का उनका अवस्था के अनुरूप संक्षेप या विस्तार से जो बोध होता है उसे ही विद्वान् लोग सम्यक् ज्ञान कहते हैं। मध्वाचार्य ने सर्वदर्शनसंग्रह में भी इसकी टीका की है
येन स्वभावेन जीवादयः पदार्था व्यवस्थितास्तेन स्वाभावेन मोहसंशयरहित्वेनावगमः सम्यग्ज्ञानम्। २३
अर्थात् जिस स्वभाव अथवा रूप में जीवादि पदार्थ अवस्थित हैं उसी रूप में मोह तथा संशय से रहित होकर उन्हें जानना सम्यक् ज्ञान है। ज्ञान की इस परिभाषा से तीन बातें स्पष्ट हैं - १. जिस रूप में पदार्थ व्यवस्थित है उन्हें उसी रूप में जानना प्रमा है (इस तथ्य से जैन दर्शन न्याय के समीप दिखलाई देता है)। २. वस्तु को मोह से परे अर्थात् पूर्वाग्रह से परे होकर जानना प्रमा है तथा ३. प्रमा संशय रहित ज्ञान है। इस प्रकार जैन ज्ञानमीमांसा में प्रमा के व्यवहारवादी पक्ष के अनुसार प्रमा की ये तीन उपाधियाँ बताई गई हैं जिसके द्वारा प्रमा के स्वरूप का निर्धारण होता है।
उपरोक्त विवेचन में जैन और बौद्ध दर्शन के प्रमा के स्वरूप तथा उसके निर्धारक तत्त्व की व्याख्या स्पष्ट रूप से की गयी है। सर्वप्रथम बौद्ध दर्शन में प्रमा के निर्धारण में तीन लक्षण अपेक्षित हैं- प्रथम अज्ञात अर्थ के प्रकाशक के रूप में, द्वितीय अविसंवादी ज्ञान रूप में तथा तृतीय अर्थसारूप्य के रूप में। वहीं जैन दर्शन में प्रमा से आशय है स्व एवं पर अर्थ का निश्चयात्मक ज्ञान प्रदान कराने वाला। जैन दार्शनिक बौद्धाभिमत निर्विकल्पक ज्ञान को अव्यवसायात्मक होने के कारण प्रमाण नहीं मानते हैं। जैन दार्शनिक प्रमाण को ज्ञानात्मक मानने के साथ निश्चयात्मक भी मानते है। निश्चयात्मकता तथा व्यवसायात्मकता ही जैन दर्शन का प्रमुख लक्षण है, जो उसे बौद्ध दर्शन में प्रतिपादित प्रमाण लक्षण से पृथक् करती है । यद्यपि बौद्ध दर्शन के प्रमाण से जैन प्रमाप्म लक्षण में अनधिगतार्थग्रहिता एवं अविसंवादिता का भी समावेश हुआ है। किन्तु जैन असंवादित को निश्चयात्मकता में फलित करते हैं। जबकि बौद्ध दर्शन के क्षणिकवादी होने से जैन दार्शनिक कहते हैं कि बौद्ध तत्त्वमीमांसा में दृष्ट अर्थ प्राप्त नहीं होता अपितु अन्य अर्थ प्राप्त होता है। क्योंकि बौद्ध क्षणिकवादी हैं, वे स्मृति को भी प्रमाण नहीं मानते। जैन दार्शनिकों द्वारा प्रमाण की सविकल्पक, व्यवसायात्मक एवं संव्यवहार के लिए उपयोगी मानने के कारण संवादकतागत वे दोष नहीं आते जो बौद्ध दार्शनिकों द्वारा साथ निर्विकल्पक प्रत्यक्ष एवं भ्रान्तज्ञान रूप अनुमान प्रमाण के आते हैं।